पृष्ठ : अभिव्यक्ति अबतक

आदमी !

दिन में सूरज की रौशनी

रात में बिजली की चकाचौंध

आखिर अँधेरा………..!

जाए तो जाए किधर ?

सिमटकर दुबक गया अँधेरा

आदमी के अन्दर |

और

आहिस्ता….! आहिस्ता…..!!

दीमक बनकर

शख्सियत व इन्सानियत को

निगलता जा रहा है

आदमी !

अब आदमी नहीं…….

बस ! लाश बनता जा रहा है |

डॉ.मधेपुरी

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कृष्ण से कलाम तक वाया गांधी, टैगोर, राधाकृष्णन

जन्माष्टमी यानि कृष्ण का जन्मदिवस और शिक्षक दिवस… दोनों एक दिन… इससे अधिक सुखद संयोग हो ही नहीं सकता। कृष्ण सभी गुणों, सारी कलाओं और समस्त लीलाओं में पूर्ण हैं। विष्णु के जितने भी अवतार हैं, उनमें ‘पूर्ण’ केवल कृष्ण हैं। लेकिन जब ‘पूर्णता’ की बात आती है तब उनके ‘प्रेमी’, ‘सखा’ या ‘सारथी’ रूपों की चर्चा तो होती है, उनके शिक्षक रूप की नहीं। जबकि सच तो ये है कि कृष्ण से बड़ा ‘शिक्षक’ सम्पूर्ण मानव-सभ्यता में हुआ ही नहीं। गीता से बड़ा अवदान और उससे बड़ा ज्ञान ना तो किसी शिक्षक ने दिया है, ना देगा। अर्जुन तो निमित्त मात्र थे, वास्तव में उन्हें सम्पूर्ण मानव-सभ्यता को ‘कर्मयोग’ का ज्ञान देना था। तब भले ही द्वापर हो और सामने महाभारत का युद्ध, उन्हें पता था कि आनेवाले समस्त युगों में जीवन का हर ‘युद्ध’ इसी ‘कर्मयोग’ से लड़ा जाना है।

आधुनिक युग में इस ‘कर्मयोग’ के कई ‘व्याख्याता’ हुए। लेकिन व्याख्या वही पूर्ण है जो कलम के साथ-साथ कर्म से भी की गई हो। इस कसौटी पर भी कई नाम खरे उतरते हैं लेकिन एक आखिरी कसौटी भी है जिस पर बिरले ही खरे उतर पाते हैं और वो है अपने कर्म को मानवमात्र के कल्याण से जोड़ देने की नैसर्गिक कला। ये कला सिर्फ एक सच्चे शिक्षक में हो सकती है। सिर्फ वही ‘शिक्षक’ कृष्ण की गौरवशाली परम्परा से जुड़ सकता है। इस कसौटी पर मैं चार नाम लूंगा और वो नाम हैं – महात्मा गांधी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, सर्वपल्ली राधाकृष्णन और एपीजे अब्दुल कलाम। इन चारों ने अपने जीवन का हर क्षण ‘कर्म’ के योग, जीवन में उसके प्रयोग और मानवजाति के लिए उसके उपयोग में बिताया था। इन सबने आदर्श ‘शिक्षक’ का धर्म आजीवन निभाया था।

शिक्षक होने के लिए किसी स्कूल-कॉलेज-यूनिवर्सिटी का होना जरूरी नहीं। इस तरह तो कृष्ण भी शिक्षक नहीं कहलाएंगे। देखा जाय तो, महात्मा गांधी पेशे से वकील थे, टैगोर साहित्य और कला के साधक और कलाम ‘मिसाइलमैन’। इन सबमें राधाकृष्णन जरूर पेशे से शिक्षक थे। लेकिन ये सब जो भी रहे हों, जिस भी रूप में रहे हों, जहाँ भी रहे हों, सबसे पहले ‘शिक्षक’ थे क्योंकि इन सभी में अपने कर्म को मानवमात्र के कल्याण से जोड़ देने की नैसर्गिक कला थी। गांधी और टैगोर की बात करें तो ‘साबरमती आश्रम’ और ‘शांति निकेतन’ अपने-अपने उद्देश्यों के साथ अपने समय में ‘शिक्षा’ के सबसे बड़े केन्द्र थे। उधर राधाकृष्णन और कलाम राष्ट्रपति भवन में रहते हुए भी अपनी असल भूमिका नहीं भूले बल्कि और बड़े मंच से उसे विस्तार ही दिया।

कृष्ण से कलाम को और इनके बीच की कड़ियों गांधी, टैगोर, राधाकृष्णन को कुछ जोड़ता है तो वो है केवल और केवल इनका ‘कर्म’, जो इतना पारदर्शी है कि कोई भी उसमें अपनी छवि देख ले। ‘व्यष्टि’ लीन हो जाय ‘समष्टि’ में और आपको पता भी ना चले। आज टीवी, मोबाइल और इंटरनेट जैसे जोड़ने और जुड़ने के बहुतेरे साधन हैं जिनकी पहले कल्पना भी सम्भव नहीं थी लेकिन क्या ऐसा कोई साधन है जो आपको स्वयं से और आपके कर्म को मानव-मर्म से जोड़ दे..? और  इस तरह जुड़-जुड़कर एक दिन इतने विराट हो जायें आप कि पूरी सृष्टि ही अपनी परछाई लगे..? ऐसा हो सकता है, अगर आपको कर्मयोग तक ले जानेवाला कोई कृष्ण या उनकी राह पर चलनेवाला कोई कर्मयोगी शिक्षक मिल जाय।

आपने कभी सोचा कि राधाकृष्णन का जन्मदिवस ही शिक्षक दिवस क्यों है..? राधाकृष्णन को चाहनेवाले उनके जन्मदिन को खास तौर पर मनाना चाहते थे और राधाकृष्णन ये सम्मान अपने ‘शिक्षक’ को देना चाहते थे। उन्होंने अपने जीवन को शिक्षक-धर्म से एकाकार कर लिया था, इसीलिए उनका जन्मदिवस शिक्षक दिवस है। उस कर्मयोगी को पता था कि जब-जब दुनिया राह भटकेगी तब-तब किसी ‘शिक्षक’ को ही राह दिखाने आना होगा। इसी सत्य को शाश्वत रखने का पर्व है ‘शिक्षक दिवस’ और इसके सबसे बड़े प्रतीक हैं संसार को ‘गीता’ की शिक्षा देनेवाले ‘कर्मयोगी कृष्ण’।

  • मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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ओ कृष्ण..! ओ कन्हैया..!!

नोट : डॉ. रवि की यह कविता 1994 में प्रकाशित उनके चर्चित काव्य-संग्रह ओ समय !’ से ली गई है। कृष्ण के बहाने इस कविता में आज के समय, समाज और सियासत पर बड़ी महत्वपूर्ण टिप्पणी की है कवि ने।

 डॉ. रवि  : पूरा नाम डॉ. रमेन्द्र कुमार यादव रवि। जन्म  : 3 जनवरी 1943 को मधेपुरा जिला के चतरा गाँव में। कुल बारह पुस्तकें प्रकाशित। भारत के लगभग तमाम प्रतिष्ठित पुस्तकालयों के साथ-साथ संसार के एक सौ दस देशों में रचनाएं मौजूद। विधानसभा, लोकसभा और राज्यसभा के सदस्य तथा भूपेन्द्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा के संस्थापक कुलपति रहे। साहित्यिक, सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों में लगातार सक्रिय।

ओ कृष्ण ..!

ओ कन्हैया ..!!

ओ काले ..!!!

सुना है तुम

बार-बार

हर बार

घुप्प अंधेरे में ही

जन्म लेते हो !

 

हम जो नाशवान हैं

एक बार जन्म लेते हैं

पाप और पुण्यों के बीच

मथित, पीड़ित

अपरिभाषित ही

दम तोड़ देते हैं।

 

सुना है

राहें पनाली

रेतीली थीं

हाथ को हाथ

नहीं सूझता था

ऐसी अंधियारी थी।

 

ओ कन्हैया ..!

विगत कष्टों

हिंसाओं

के दौर में

अधर्म

अनीति

और

अन्याय से बचाने

तुम अवतरित हुए।

इतनी बार

सृष्टि ने

तुम्हें जना

फिर क्यों

ओ काले..!

यह कुत्सा है

कुबास है

कड़वाहट है..?

 

तेरे जन्मकाल में

हाथ को हाथ

नहीं दिखता था

अब तो

श्वेत भी निशा है

स्नेह भी शनि है

और

दिव्यदृष्टि से

अन्तर

चर्म चक्षु से बाहर

शायद

तब दिखता हो –

अब तो आंखें ही नहीं रहीं

विवेक बिक गया

यह भारत

यह माता

अब

बांझ और बोझिल है

नहीं तो

इतनी बार

जन्म लेने पर भी

यह घुप्प अंधेरा क्यों ..?

 

ओ कृष्ण ..!

ओ कर्ता.. !!

ओ अष्टकारक ..!!!

क्यों यह अरिष्ट है

क्यों यह अष्टग्रह

शस्य श्यामला धरती

क्यों आज उदास

स्याह और सर्द है ..?

निशीथ की आजादी

जन्म तेरा निशीथ का

सीलन से भरा समाज

यह स्याह सियासती जंग

इन सर्द जिजीविषाओं से

नासमझ समझौतों को

क्या

तेरा सुदर्शन

चीर नहीं सकता ..?

लील नहीं सकता ..?

[मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. रवि से साभार]

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ये तेरा डीएनए, ये मेरा डीएनए

चुनाव के मुहाने पर खड़े बिहार में बहस छिड़ी है ‘डीएनए’ को लेकर। 25 जुलाई को मुजफ्फरपुर की रैली में प्रधानमंत्री मोदी ने भोज पर बुलाकर थाली छीन लेने की बात उठाई… उठाकर उसे मांझी प्रकरण से जोड़ा… और यहां से उन्हें सीधा नीतीश कुमार के ‘डीएनए’ का रास्ता मिल गया। राजनीति में एक रास्ते से हमेशा कई और रास्ते जुड़े होते हैं। जाहिर है कि मोदीजी बिहार में अपना रास्ता खोजते हुए ही ‘डीएनए’ तक पहुँचे थे और ‘डीएनए’ के बाद की क्रिया-प्रतिक्रिया देखकर उन्हें बिहार में जल्द ही होनेवाली अपनी एक के बाद एक तीन रैलियों में आगे का रास्ता तय करना था। लेकिन बीच के समय में ‘डीएनए’ की गेंद नीतीश के कोर्ट में थी। नौ-दस दिन के सोच-विचार के बाद उन्होंने ट्वीटर का रास्ता पकड़ा, ‘डीएनए’ को पूरे बिहार से जोड़ा और मोदीजी के नाम खुला पत्र लिख डाला। अब बहस छिड़ी है कि ‘डीएनए’ नीतीश का खराब है या पूरे बिहार का..? मोदी ने नीतीश का अपमान किया या बिहार की गरिमा भंग की..?

“हरि अनंत हरि कथा अनंता”। राजनीति में इस तरह की बहस होती ही रहती है और आम तौर ऐसी बहसें किसी निष्कर्ष पर पहुंचती भी नहीं। या यूं कहें कि बहस करने वाले बहस का कोई निष्कर्ष चाहते ही नहीं। बहसों को येन-केन-प्रकारेण ‘डायलिसिस’ के सहारे वो जिन्दा रखते हैं ताकि राजनीति की उनकी दूकान घोर वैचारिक मंदी में भी चलती रहे। लेकिन यहां मसला ‘डीएनए’ का है और चाहे-अनचाहे बिहार से जुड़ गया है तो इसकी पड़ताल तो होनी ही चाहिए।

डीएनए आखिर है क्या..? डी-ऑक्सीरोईबोन्यूक्लिक एसिड यानि डीएनए अणुओं की उस घुमावदार संरचना को कहते हैं जो हमारी कोशिकाओं के गुणसूत्र में पाए जाते हैं और इन्हीं में हमारा आनुवांशिक कूट मौजूद रहता है। डीएनए की खोज जेम्स वाटसन और फ्रांसिस क्रिक नाम के दो वैज्ञानिकों ने 1953 में की थी और मानव-जाति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण इस खोज के लिए उन्हें 1962 में नोबेल प्राइज से नवाजा गया था। लेकिन तब शायद ही उन्होंने इस बात की कल्पना की होगी कि आगे चलकर कभी यही डीएनए ‘विशुद्ध’ राजनीतिक बहस का केन्द्र भी बन सकता है।

यहां राजनीति के साथ ‘विशुद्ध’ शब्द का इस्तेमाल मैं बहुत सावधानी से और बहुत जोर देकर कर रहा हूँ क्योंकि ना तो डीएनए तक मोदी के पहुँचने में राजनीति के अलावा कुछ था और ना ही नीतीश द्वारा इसे बिहार से जोड़ देने में। दोनों नेता अपने-अपने तीर-तरकश को संभाले बस विधानसभाई ‘मछली’ की आँख देख रहे हैं। उन्हें इतनी फुरसत कहां कि डीएनए की ‘घुमावदार संरचना’ तक पहुंचे। हाँ, भोली-भाली जनता उनकी इस बहस से जितनी घूम जाय, उनका ‘डीएनए’ उतना ही सफल माना जाएगा।

हमें बहुत सचेत और सावधान होना होगा कि यहाँ ‘डीएनए’ की बहस में उस बिहार को घसीटा जा रहा है जहाँ की मिट्टी ने भारत को पहला सम्राट दिया और पहला राष्ट्रपति भी, जहाँ गांधी और जेपी के संघर्ष ने आकार लिया, जहाँ चाणक्य के राज-धर्म से लेकर कर्पूरी के समाज-धर्म तक मील के अनगिनत पत्थर हैं। और तो और जिस बुद्ध ने अपने ज्ञान से धर्म का और आर्यभट्ट ने ‘शून्य’ से विज्ञान का पूरा का पूरा ‘डीएनए’ ही बदल डाला, वे भी इसी बिहार के थे। ना तो किसी मोदी की सामर्थ्य हो सकती है कि इस बिहार के ‘डीएनए’ पर उँगली उठा दें और ना कोई नीतीश इतने बड़े हो सकते हैं कि इसके ‘डीएनए’ के प्रतीक हो जाएं।

सच तो ये है कि ‘डीएनए’ आज की राजनीति का दूषित हो गया है तभी ये बहस छिड़ी है या इस जैसी कोई भी बहस छिड़ती है। आज राजनीति में वो शुचिता, वो संस्कार, वो साधना ही नहीं रही जो हमें हमारी परम्परा से मिली। हम पड़ताल करें, अगर कर सकें, तो नीतीश हों या मोदी, जदयू हो या भाजपा, राजनीति के स्तर पर इनके ‘डीएनए’ में कोई खास फर्क नहीं दिखेगा। नाम बदल जाते हैं, चेहरे बदल जाते हैं, संदर्भ बदल जाते हैं और सरकार बदल जाती है, अगर कुछ नहीं बदल पाता है तो वो है आजाद भारत में राजनीति का लगातार गिरता स्तर और दिन-ब-दिन और अधिक प्रदूषित होता उसका ‘डीएनए’। मतभेद तो गांधी और अंबेडकर या नेहरू और पटेल में भी थे लेकिन बात कभी ‘डीएनए’ तक नहीं पहुंचती थी। ये तेरा डीएनए, ये मेरा डीएनए करने की जगह क्यों ना हमलोग उस ‘डीएनए’ की तलाश में जुटें जो हमारे इन पुरखों में था। तब शायद इस तरह की किसी बहस की ना तो कोई जरूरत होगी, ना गुंजाइश।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

 

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भारत तेरी संसद मैली हो गई… सत्ता के पाप धोते-धोते

ललित मोदी और व्यापम के मुद्दे पर सुषमा, वसुंधरा और शिवराज के इस्तीफे को लेकर कांग्रेस अड़ी हुई है। संसद ठप्प है। गतिरोध बढ़ता जा रहा है। संसद के इतिहास में पहली बार स्पीकर ने एक साथ पच्चीस सांसदों को निलंबित किया है। ये सांसद कांग्रेस के हैं। इस निलंबन के विरोध में सोनिया गांधी, राहुल गांधी, मनमोहन सिंह, एके एंटनी समेत कांग्रेस के तमाम नेता संसद के बाहर प्रदर्शन कर रहे हैं।

लोकसभा चुनाव में अपनी ऐतिहासिक पराजय के बाद अस्तित्व की लड़ाई रह रही कांग्रेस अब आक्रामक हो चली है। पहले तो कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी अपने ‘अज्ञातवास’ के बाद बगावती बयानों और अप्रत्याशित दौरों के साथ एकदम नए अवतार में सामने आए और अब पूरी पार्टी उनके नक्शेकदम पर चल पड़ी है। अपने सांसदों के निलंबन को कांग्रेस लोकतंत्र के लिए काला दिन बता रही है। बताए भी क्यों ना, ये ‘कालिमा’ जितनी बढ़ेगी कांग्रेस के भविष्य पर लगा ‘ग्रहण’ उसी अनुपात में कम जो होगा। उन्हें लोकतंत्र की चिन्ता जितनी भी सता रही हो, अपने हाशिए पर होने की चिन्ता बेहद सता रही है, इसमें कोई दो राय नहीं। सपा, टीएमसी, जदयू, राजद, एनसीपी जैसे दल भी कांग्रेस के सुर में सुर मिला रहे हैं क्योंकि आज इन सबकी नजर में ‘अ-सुर’ है तो केवल भाजपा। शत्रु का शत्रु तो स्वाभाविक रूप से मित्र हो जाता है।

सच तो ये है कि अब राजनीति में नीति, सिद्धांत, विचार जैसे शब्द बेमानी हो चुके हैं। अब इनकी जगह स्वार्थ, सुविधा और अवसर जैसे शब्दों ने ले ली है। आज जिस भाजपा को कांग्रेस की ये हरकत बेतुकी और बचकानी लग रही है, सत्ता में आने से पूर्व वो स्वयं इसी भूमिका में थी। राजनीतिक हित साधने के लिए सदन की कार्रवाई कल भी बाधित होती थी, आज भी हो रही है। लेकिन यहाँ सवाल ये नहीं है कि कल भाजपा गलत थी या आज कांग्रेस गलत है। सवाल ये है कि सदन की गरिमा और जनता के भविष्य के साथ कल भी खिलवाड़ हो रहा था, आज भी हो रहा है।

दूध की धुली कोई पार्टी नहीं है और शायद पूरी तरह हो भी नहीं सकती। शासन और सत्ता के संदर्भ में प्लेटो का कहा आज भी उतना ही सच है कि चुनाव अच्छे और बुरे के बीच नहीं, कम बुरे और अधिक बुरे के बीच होता है। विडंबना तो ये है कि इस कसौटी पर भी आज की तारीख में कोई पार्टी खरी उतरती नहीं दिखती। यहाँ आकर तराजू के पलड़े बराबर हो जाते हैं। ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ ही जैसे राजनीति का अन्तिम सत्य हो गया हो। और ये सत्य इतना विकराल रूप ले चुका है कि तमाम क्षेत्रीय पार्टियां भी अपने दायरे में बस यही कहानी दुहरा रही हैं।

क्षेत्रीय पार्टियां, जिनका जन्म अलग ‘प्रतिबद्धता’ के साथ होता है, सत्ता के हमाम में आते-आते उतनी ही नंगी दिखने लगती हैं। बिहार को ही लीजिए। जदयू को सत्रह वर्षों तक भाजपा के साथ ‘मलाई’ में ‘भलाई’ दिखी लेकिन अब उनकी पूरी राजनीति भाजपा के विरुद्ध खड़ी है। बात यहीं तक होती तो एक बात थी। हद तो तब हो गई जब जदयू ने उसी राजद के साथ हाथ मिलाया जिसके विरोध में उसका जन्म हुआ था। उधर भाजपा को भी चंद महीनों में ही उस सरकार में कमियां ही कमियां दिखने लगीं जिसका वो हाल तक खुद हिस्सा रही थीं।

बात साफ है कि आज तमाम तर्क बस अपनी सुविधा के लिए गढ़े जाते हैं। कल तक जिस साबिर अली को भाजपा के ही लोग दाउद का साथी बता रहे थे आज वही पार्टी में उनका स्वागत कर रहे हैं। बिहार में होनेवाले चुनाव के किसी समीकरण में वे फिट हो रहे हों तो उनके या किसी के ‘पाक-साफ’ होने में कितनी देर लगती है। उधर कल तक लालू के ‘हनुमान’ कहलाने वाले रामकृपाल यादव महज साल बीतते-बीतते इस कदर भाजपाई हो गए कि जिस लालू में उन्हें राजनीति की सारी खूबियां दिखती थीं, अब वही उनके लिए खामियों के पुतले हैं। ये तो कुछ उदाहरण भर हैं। देश के किसी भी हिस्से में कोई भी दल ऐसे उदाहरणों से अछूता नहीं है।

बहरहाल, सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे और शिवराज सिंह चौहान का भविष्य क्या होता है, कांग्रेस के सांसदों के निलंबन को लेकर राजनीति क्या करवट लेती है, संसद की कार्रवाई कब तक बाधित रहती है – इन सवालों के जवाब आज नहीं तो कल मिल जाएंगे लेकिन भारत की संसद सत्ता का पाप धोते-धोते कब तक मैली होती रहेगी, इसका जवाब आज किसी के पास नहीं। पार्टियां अपनी राजनीति में मस्त हैं, मीडिया को मसाला मिल रहा है लेकिन करोड़ों बेबस जनता का क्या..! कब तक कोई ‘ललित मोदी’, कोई ‘व्यापम’ आकर डेढ़ करोड़ भारतीयों के मन्दिर हमारी संसद को मैला करते रहेंगे। ललित मोदी और व्यापम कोई व्यक्तिविशेष या संस्थाविशेष नहीं बल्कि सत्ता के वो पाप हैं जो रहते तो हर युग में हैं लेकिन अब दिखने लगे हैं, ठीक वैसे ही जैसे किसी मरे हुए जानवर की लाश पर ‘कीड़े’ बजबजाते और ‘गिद्ध’ मंडराते दिखते हैं।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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आप जानिये क्या हैं ए. पी. जे. अब्दुल कलाम ?

डॉ. ए.पी.जे.अब्दुल कलाम यानी अवुल पकीर जैनुलाब्दीन अब्दुल कलाम | और आगे जानिये- अवुल हुए परदादा, पकीर दादा जी एवं जैनुलाब्दीन वालिद (पिता) | इन सबों के अन्त में सबकुछ कलाम पर जाकर ठहर जाता है क्योंकि उसे ना बेटा है न बेटी…. और ना….. | फिर भी यह कारवाँ रुकने वाला नहीं है | भारत के समस्त बेटे-बेटियों द्वारा बड़े-बड़े सपने देखने और उन्हें अमलीजामा पहनाने हेतु हमारा कलाम हमेशा जिन्दा रहेगा | कलाम केवल भारत को ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण विश्व को अमन के लिए प्रेरित करता रहेगा | गीता-कुरान के तर्ज पर कर्मयोग का पाठ पढाता रहेगा तथा निरन्तर कबीरवाणी – काल करे सो आज कर…… एवं ढाई आख़र प्रेम का….. गुनगुनाता रहेगा | कलाम की इन्हीं भावनाओं को पंक्तिबद्ध कर आपका मधेपुरी हमेशा आपके साथ गुनगुनाता रहेगा – विशेष रूप से……

युवजनों के नाम  डॉ. कलाम का संदेश :-

हों कर्मठ तेरे हाथ

सृजन तब करूं मैं सुख से

तुम्हारे लिए !

एक बेहतर कल के लिए

मैं दौड़ने को  अब भी तैयार

तुम्हारे लिए !

इस महान पुण्य-भूमि में मैं

खोदा गया एक कुआँ हूँ

तुम्हारे लिए !

देखो सपना विकसित भारत का

उठो ! खाक हो जाऊंगा मैं

तुम्हारे लिए !

यही बस अन्दर में है आग

सुलगती दिल में बारम्बार

तुम्हारे लिए !तुम्हारे लिए !!

  डॉ. मधेपुरी की कलम से …..

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कलाम, कलाम थे… सिर्फ कलाम..!

आज भी एक दिन है बाकी दिनों की तरह… कमोबेश सबकी दिनचर्या भी आम दिनों की तरह ही होगी… हम, हमारा घर, पास-पड़ोस, गांव-शहर, राज्य, देश और दुनिया अपनी परिधि और परिवेश में अपने-अपने हिस्से की भूमिका निभा रहे होंगे। नंगी आंखों से देखें तो सब कुछ वही है जो कल था। हाँ, सब कुछ वही है… सिवाय एक परिवर्तन के। और वो परिवर्तन बस इतना है कि हमारे-आपके जैसा एक हाड़-मांस का व्यक्ति, दो हाथ, दो पैर, दो आँखों वाला व्यक्ति कल शाम तक खड़ा था और आज लेटा हुआ है। लेटता तो वो 84 साल से रहा था लेकिन इस बार उसे नींद जरा गहरी आ गई। “पृथ्वी को रहने लायक कैसे बनाया जाय” इस पर सोचते-सोचते उसने ये पृथ्वी ही छोड़ दी। क्या ये पृथ्वी उसके रहने लायक नहीं रह गई थी..? या फिर इसे रहने लायक कैसे बनाया जाय ये सोचने को एक आत्मा ने अपनी वर्तमान काया को छोड़ना ही मुनासिब समझा..? मित्रो, यही वो बिन्दु है जहाँ किसी के भी ना रहने और एपीजे अब्दुल कलाम के ना रहने का फर्क समझ में आता है। और इस फर्क को समझकर ही हम समझ पाएंगे कि कल और आज में क्या फर्क है..? कल क्या था जो आज हमने खो दिया..?

हाँ मित्रो, कलाम नहीं रहे। कौन थे कलाम..? महान वैज्ञानिक..? बेमिसाल शिक्षक..? मिसाईलमैन..? पोखरण के नायक..? भारतरत्न..? भारतीय गणतंत्र के भूतपूर्व राष्ट्रपति..? ईमानदारी से बतायें, क्या ये सारे जवाब मिलकर भी एक कलाम को पूरा परिभाषित कर पाएंगे..? नहीं… बिल्कुल नहीं। सच तो ये है कि इनमें से कोई एक विशेषण भी किसी को गौरवान्वित करने के लिए काफी है और जब ये सारे विशेषण मिलकर भी किसी एक व्यक्ति को परिभाषित ना कर पा रहे हों तो उसके कद और उसकी हद की कल्पना क्या की जा सकती है..?

बुद्ध, गांधी, मार्क्स, आईंस्टाईन और कलाम जैसे महामानव रोज-रोज नहीं आते। इन रत्नों को ईश्वर सहेज कर रखते हैं और बड़े मौके पर इन्हें धरती पर भेजते हैं। ऐसे लोग आते हैं और सदियों का अंधेरा दूर कर जाते हैं। बल्कि कहना तो ये चाहिए कि कलाम जैसे लोग रोशनी को भी रोशनी दिखा जाते हैं। आज जहाँ ‘मनुष्यता’ दिन-ब-दिन अपनी शर्मिन्दगी के बोझ तले दबती जा रही है वहाँ किसी ‘कलाम’ की ही बदौलत एक मनुष्य के रूप में हम सिर उठा पाते हैं।

कलाम अब सशरीर हमारे बीच नहीं होंगे लेकिन हमारी सोच, हमारे सपनों से उन्हें भला कौन दूर कर सकता है। हमारी आनेवाली पीढ़ियां जब अपना लक्ष्य तय करेंगी, तब कलाम ही टोक रहे होंगे कि “छोटा लक्ष्य एक अपराध है”… और जब-जब हम आँखे बन्द कर सपने देखेंगे, तब कलाम ही हमें बता रहे होंगे कि “सपने वो नहीं जो हम बंद आँखों से देखते हैं, सपने तो वो हैं जो हमें सोने नहीं देते”। फेल (FAIL) को फर्स्ट अटेम्प्ट इन लर्निंग, एंड (END) को एफर्ट नेवर डाइज और नो (NO) को नेक्स्ट अपॉर्चुनिटी कहने का जीवन-दर्शन हमें कलाम से ही मिल सकता है और सफलता की गूढ़ पहेली कलाम ही इतनी आसानी से सुलझा सकते हैं कि “सफलता का रहस्य सही निर्णय है, सही निर्णय अनुभव से आता है और अनुभव गलत निर्णय से मिलता है।”

आज की ‘फेसबुक पीढ़ी’ की रुचि और आदर्श पल-पल बदला करते हैं लेकिन कलाम इस पीढ़ी के लिए भी कितने बड़े आदर्श थे और वो भी कितनी रुचि के साथ इसे सोशल मीडिया में उनके लिए उद्गारों की बाढ़ से सहज समझा जा सकता है। ये जानने के लिए कि सूरज की तरह चमकने के लिए सूरज की तरह ही जलना होगा, इस पीढ़ी के पास कलाम से बड़ा आदर्श कोई दूसरा था भी तो नहीं। यू.एन.ओ. ने कलाम के जन्मदिवस 15 अक्टूबर को ‘इंटरनेशनल स्टूडेन्ट्स डे’ घोषित कर एक भविष्य के ‘द्रष्टा’ और ‘निर्माता’ शिक्षक को बहुत सही श्रद्धांजलि दी है।

कलाम को किसी भी कोण से देख लें, देखने वाले का धन्य हो जाना तय है। गीता का कर्मयोग समझना हो तो कलाम के जीवन में एक बार झांक लेना काफी होगा। ‘स्थितप्रज्ञ’ होना क्या होता है इसे समझने के लिए कलाम से बेहतर उदाहरण हो नहीं सकता। सादगी और सहजता कितनी बड़ी पूंजी है गांधी के बाद किसी ने समझाया तो वो कलाम ही थे। जीवन का हर पल कैसे साधना का पर्याय हो सकता है इसकी गवाही तो उनके जीवन का आखिरी पल भी दे गया।

कलाम ‘महा’मानव थे, इसके अधिक मायने ये रखता है कि कलाम ‘पूर्ण’ मानव थे। और मानव जब पूर्णता को छूता है, देवत्व भी झुक जाता है। सच तो ये है कि कलाम हर ‘विशेषण’ से ‘विशेष’ थे। कलाम, कलाम थे… सिर्फ कलाम..!

– मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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गाँधीयन मिसाइल मैन डॉ. कलाम नहीं रहे  !

शिलांग में अपने अंतर्कोष लुटाते हुए भारतरत्न डॉ. कलाम ने अंतिम सांस ली | वे भारत के राष्ट्रपति हुआ करते थे जब मुझे उनसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ | मैंने उस ऋषि को करीब से देखा जो गीता और कुरान में समभाव रखता था | जो हर पल मानवता को नई ऊंचाई पर ले जाने के बारे में सोचता था | जिसके फलस्वरूप मैंने उनकी जीवनी लिखी –स्वप्न ! स्वप्न !! और स्वप्न !!!बाद के वर्षों में मैंने उनके सवाल-जबाब पर आधारित दूसरी किताब लिखी छोटा लक्ष्य एक अपराध है !

और कुछ तो इस समय नहीं कह सकता | बस इतना ही कि उन्होंने जो मुझसे कहा था – वह सबों के लिए एक संदेश के रूप में कह रहा हूँ –

  • ये आँखें दुनिया को दोबारा नहीं देख पायेंगीं ! तुम्हारे अन्दर जो बेहतरीन है उसे दुनिया को देकर जाना . . . !!

 डॉ. मधेपुरी की कलम से ,

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शिक्षा जगत के विश्वकर्मा :- कीर्ति नारायण मंडल (1916-1997) : जन्म शताब्दी वार्षिक समारोह – 2015-2016

18 मार्च 1916 को मधेपुरा जिले के मनहरा गाँव में शिक्षानुरागी कीर्ति नारायण मंडल का जन्म पिता ठाकुर प्रसाद मंडल एवं माता पार्वती देवी के घर होता है | कीर्ति बाबू में लोग कभी कबीर और नानक का स्वरुप देखते तो कभी विश्वकर्मा का रूप | यूँ उन्हें विश्वकर्मा कहना ही ज्यादा लोग पसंद करते क्योंकि जहाँ-जहाँ उनके कदम पड़े , वहीँ एक महाविद्यालय बनकर तैयार खड़ा हो गया |

1953 में सर्वप्रथम उन्होंने 50 बीघे जमीन और 25 हजार रूपये दान देकर मधेपुरा में टी.पी.कॉलेज की स्थापना कर पिताश्री को अमरत्व प्रदान किया | वहीँ शहर के मध्य में ही करोड़ों की संपत्ति दान देकर माताश्री के नाम पार्वती विज्ञान महाविद्यालय बनाकर मातृशक्ति को भव्य स्वरुप प्रदान किया |

कोसी एवं पूर्णिया प्रमंडल के सात जिलों में तीन दर्ज़न कालेजों की स्थापना कर दधिची की तरह अपना सबकुछ उन्होंने लगा दिया | उनकी स्मृति को तारोताजा बनाये रखने के लिए ये चार पंक्तियाँ- श्रधांजलि स्वरुप:-

धन आदमी की नींद हरपल हराम करता ,

जो बाँटतादिल खोल उसे युग सलाम करता !

मरने के बाद मसीहा बनता वही मधेपुरी ,

जो ज़िन्दगी में अपना सबकुछ नीलाम करता है !!

                                             (प्रस्तुति :- डॉ मधेपुरी)

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श्रमदीप मगर वह सर्वोत्तम जो फूल खिलाते रेतों में !!

मधेपुरा जिले के उत्तर-पूरब सीमा से सटा है अररिया जिला | वहाँ के नढ्की, तमघट्टी एवं पहुंसरा गाँव जो कल तक मधेपुरा जिले के टेंगराहा-सिकियाहा गाँव की तरह मिनी चम्बल के नाम से मशहूर था , वही आज सब्जी उत्पादन का केन्द्र बन गया है | जिस जमीन पर कभी बंदूकों की आवाज़ गूंजती थी वहीँ के खेतों में आज हरी-भरी सब्जियां लहलहा रही है | दर्जनों दिगभ्रमित युवक बन्दूक-गोली का परित्याग कर अपनी मिहनत की बदौलत सोना उपजा रहे हैं | भटक रहे युवाओं को राह दिखाने के लिए अपने श्रमदीप का प्रकाश फैला रहे हैं | एक हजार एकड़ जमीन में आधुनिक तरीके से सब्जी ही नहीं बल्कि मक्का-गेहूं, सूर्यमुखी, दलहन, तेलहन, आदि नगदी फसलों की खेती कर रिकॉर्ड उत्पादन कर रहे हैं |

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रानीगंज दौरे के समय मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को बिन मौसम उगाई गोभी की टोकरी भेंट किये जाने पर उन्होंने किसानों को सरकारी सहयोग का भरोसा दिया जिसके तहत मुख्य-सचिव ने दो-दो पोली हाउस बनवाकर बीज से पौधे उगाने में किसानों की मदद की |

sansad madhepura sharad yadav
Sansad Madhepura Sharad Yadav

काश ! राष्ट्रीय नेता शरद यादव यदि डॉ मधेपुरी की सलाह पर टेंगराहा के इर्द-गिर्द की हजारों एकड़ परती-परांट जमीन को सरकार के “बंजर भूमि सुधार आयोग” की टीम लाकर दिखा दिए होते तो आज वह बंजर भूमि भी सोना उगलता , जहाँ के दिगभ्रमित युवाओं द्वारा लोकनायक के समक्ष हथियार समर्पित किया जा चुका था |

अररिया के गांवों की समृद्धि के लिए धन्यवाद के पात्र हैं – शिक्षित बड़े किसान मलय कुमार सिंह , रामकुमार मेहता, शिवदयाल मेहता, जिनके श्रम के फलस्वरूप गाँव में शहर की सारी सुविधाएँ उपलब्ध होती जा रही है और साधुवाद के पात्र हैं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ! अररिया के गांवों के लोग अब गुनगुनाने लगे हैं –

कुछ दीप जलाते हैं छत पर ,

कुछ दीप जलाते खेतों में !

श्रमदीप मगर वह सर्वोत्तम ,

जो फूल खिलाते रेतों में !!

Dr. Madhepuri
Dr. Madhepuri

टेंगराहा के बाबत मधेपुरा अबतक द्वारा पूछे जाने पर डॉ मधेपुरी ने कहा कि मैं अभी भी पूर्णरुपेन आशावान हूँ कि कभी-न-कभी श्रमदीप के पुजारी टेंगराहा निवासी श्री दिगम्बर प्र. यादव (अवकाश प्राप्त कृषि पदाधकारी ,पूर्णिया सरकारी कृषि फार्म) जो बार-बार बिहार सरकार द्वारा पुरस्कृत होते रहे हैं – को एक-न-एक दिन “देवेन्द्र धाम ” से प्रेरणा मिलेगी और प्राचार्य श्यामल किशोर द्वारा स्थापित देवेन्द्र उच्च माध्यमिक विद्यालय से दूर-दूर तक परती-परांट दिखने वाला वह वंजर भूमि आज नहीं तो कल, सब्जी उत्पादन केन्द्र बनने के साथ-साथ मक्का,गेहूं,सूर्यमुखी,दलहन-तेलहन आदि नकदी फसलों से लहलहा उठेगा और इस कारनामे को देखने के बहाने भी “देवेन्द्र धाम ” में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती चली जाएगी | कल्याणकारी शिव इलाके के लोगों का शोक हरण कर एक नया “अशोक नगर” स्थापित करेगा |

devendra dham tengraha
Devendra Dham Tengraha

 

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