दिन में सूरज की रौशनी
रात में बिजली की चकाचौंध
आखिर अँधेरा………..!
जाए तो जाए किधर ?
सिमटकर दुबक गया अँधेरा
आदमी के अन्दर |
और
आहिस्ता….! आहिस्ता…..!!
दीमक बनकर
शख्सियत व इन्सानियत को
निगलता जा रहा है
आदमी !
अब आदमी नहीं…….
बस ! लाश बनता जा रहा है |
डॉ.मधेपुरी