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लालू को एक और मामले में सजा

आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव की मुश्किलें कम होने की जगह बढ़ती ही जा रही हैं। बुधवार को चारा घोटाले के एक और मामले में उन्हें सजा सुनाई गई। इस बार सजा पांच साल की है। साथ में 10 लाख का जुर्माना भी। रांची स्थित सीबीआई कोर्ट ने लालू प्रसाद यादव और राज्य के एक और पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र, जगदीश शर्मा, आर के राणा और विद्या सागर निषाद समेत 50 आरोपियों को चाईबासा कोषागार से 35 करोड़ 62 लाख रुपये का गबन करने के मामले में दोषी करार दिया। बता दें कि लालू की तरह ही जगन्नाथ मिश्र को भी पांच साल की कैद की सजा सुनाई गई है।

चारा घोटाले का यह तीसरा मामला है जिसमें लालू प्रसाद यादव और जगन्नाथ मिश्र को पांच-पांच साल जेल की सजा सुनाई गई है। गौरतलब है कि इस मामले में बहस दस जनवरी को पूरी हो गयी थी। इस ताजा फैसले के बाद चारा घोटाले से ही जुड़े देवघर कोषागार मामले में जेल में बंद लालू प्रसाद यादव के रिहा होने की संभावना अत्यंत धूमिल हो गयी है।

बहरहाल, चारा घोटाले के दो मामलों में लालू को पहले ही सजा हो चुकी है। चाईबासा कोषागार से ही 37.7 करोड़ रुपये की अवैध निकासी के मामले में सितंबर 2013 में पांच वर्ष की सजा हो चुकी है। जबकि देवघर कोषागार से अवैध निकासी के मामले में सीबीआई की विशेष अदालत ने इसी महीने छह तारीख को  उन्हें सजा सुनाई  है। इस मामले में वह अभी रांची स्थित होटवार जेल में हैं।

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चौंकाती है ये चुप्पी लालूजी की

आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव आजकल चुप-चुप से हैं। बिहार में सबसे बड़ी पार्टी उनकी, महागठबंधन के वो अभिभावक, दोनों बेटे सरकार में, बेटी को राज्यसभा भेज चुके… फिर भी सोशल मीडिया उनके तीखे, चुटीले और हंसोड़ बयानों के बिना सूना और नीरस है आजकल। लोग तरह-तरह की अटकलें लगा रहे हैं कि आखिर चुप क्यों हैं लालूजी? वैसे भी जिन्हें बिहार की राजनीति की थोड़ी भी समझ है वे जानते हैं कि लगभग तीन दशकों से बिहार की राजनीति पर छाए रहने वाले इस शख्स की ‘चुप्पी’ किस कदर मायने रखती है।

ऐसे में जाहिर है, कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना। लोगों की मानें तो लालू तभी से खामोश हैं जब से शहाबुद्दीन वापस जेल गए हैं। हाल ये है कि लालू ही नहीं, उनके दोनों बेटे तेजस्वी और तेजप्रताप से लेकर आरजेडी के तमाम बयानवीरों ने चुप्पी साधी हुई है। शहाबुद्दीन के वापस जेल जाने से लालू आहत थे ही कि दुष्कर्म के आरोपी विधायक राजवल्लभ यादव का मामला भी सामने आ गया। दोनों ही मामलों में बिहार सरकार का सुप्रीम कोर्ट जाना लालूजी को रास नहीं आया | लेकिन ‘गठबंधन धर्म’ की विवशता में वो ना कुछ कर सके, ना कुछ कह सके।

इधर लालू चुप हैं और उधर शहाबुद्दीन की पत्नी हिना शहाब ने एक चौंकाने वाला बयान दिया है। हिना ने कहा कि 2005 में जब सात दिन की सरकार बनी थी, तब शहाबुद्दीन ने आरजेडी को समर्थन दिया था। उसी का बदला निकालने के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उनके पति की जमानत रद्द करवा कर जेल भेज दिया। इसके लिए डीएम-एसपी को हथियार बनाया गया, जो सरकार की कानून-व्यवस्था को लेकर गलत रिपोर्ट भेजते थे। हिना ने तंज कसा कि नीतीश कुमार को लगता था कि शहाबुद्दीन के बाहर आने से बिहार में भय का माहौल पैदा हो गया है, तो उनके जेल जाने पर क्या अमन-शांति का माहौल है? हिना ने आगे कहा कि अगर कानून-व्यवस्था खराब रहती तो लाखों लोग सीवान नहीं पहुँचते। क्या यहाँ आने वाले सभी लोग भयभीत थे?

बहरहाल, हिना का आग उगलना समझ में आता है। बिहार सरकार और उसके मुखिया नीतीश कुमार को वो कोसेंगी ही, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। लेकिन लालू यहाँ फिर चुप हैं, ये जरूर चौंकाने वाली बात है। याद दिला दें कि शहाबुद्दीन ने जेल से निकलते ही लालू को अपना नेता बताया था और नीतीश को ‘परिस्थितियों का नेता’ कहा था और लालू तब भी चुप ही थे। अब देखना यह है कि लालूजी की ‘चुप्पी’ कब तक कायम रहती है, और टूटती है तो किस तरह टूटती है?

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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तो क्या गाय सचमुच केवल दूध देती है, वोट नहीं ?

लालू तंज कसने में कभी नहीं चूकते, बस मौका मिलना चाहिए। और जब सामने प्रधानमंत्री मोदी हों तो कहना ही क्या। अब जबकि छोटे भाई नीतीश के लिए उनका सत्रह साल पुराना ‘प्रेम’ फिर से जग गया है, कांग्रेस से भी ‘अपनापा’ है, मांझी पर ‘डोरे’ ही डालने में लगे हैं और रामविलास समेत बाकी लोगों की खास चिन्ता उन्हें है नहीं, तो बचता भी कौन है भाजपा और नरेन्द्र मोदी के सिवा। हाँ, नेता तो प्रदेश भाजपा के भी कई हैं लेकिन उन्हें ना तो लालू और ना नीतीश तंज कसने के ‘लायक’ मानते हैं।

बहरहाल, ताजा मामला प्रधानमंत्री मोदी के उस बयान से जुड़ा है जिसमें उन्होंने कहा था कि गाय की रक्षा के नाम पर असामाजिक तत्व अपनी दुकान चला रहे हैं। राजद सुप्रीमो ने अपने फेसबुक पोस्ट में लिखा है कि आखिरकार मोदीजी को ये बात समझ आ गई कि गाय दूध देती है, वोट नहीं।

बता दें कि कल प्रधानमंत्री ने गोरक्षा के नाम पर गुजरात के ऊना में दलितों की पिटाई के संदर्भ में बयान दिया था। उन्होंने कहा था कि गोरक्षा के नाम पर असामाजिक तत्व अपनी दुकान चला रहे हैं। ऐसे लोगों पर उन्हें गुस्सा आता है। कुछ लोग पूरी रात एंटी सोशल एक्टिविटी करते हैं लेकिन दिन में गोरक्षक का चोला पहन लेते हैं। उन्होंने राज्य सरकारों कहा कि ऐसे जो स्वयंसेवी निकले हैं उनका जरा डोजियर तैयार करें, इनमें से 70-80 फीसदी एंटी सोशल एलिमेंट निकलेंगे।

इतना सुनना था कि लालू ने बिना देर किए अपने फेसबुक पोस्ट में लिखा – “नागपुर वालों, यह सत्य की विजय और पाखंड की पराजय है। लगता है मेरे द्वारा दो दिन पहले कही गई बात मोदीजी को अच्छे से समझ में आ गई कि गाय दूध देती है, वोट नहीं।“ लालू ने आगे लिखा – “गौमाता इनकी सरकार बनवाना तो दूर, बनी बनाई सरकारों को हिला रही है। ये हमारी जीत और उनकी हार है।“

लालू आखिर लालू ठहरे। वो इतने पर भी नहीं रुके। उन्होंने ये भी कह डाला कि “गौमाता के नाम पर बेवकूफ बनाने चले थे, अब दाँव उल्टा पड़ गया तो भाषा बदल रही है।… आप लोग बिहार चुनाव में कैसे बड़े-बड़े विज्ञापन निकालते थे। ये उन विज्ञापनों की पराकाष्ठा थी कि चुनाव में दाल नहीं गली। हाँ, अब आपका दल जरूर गल जाएगा।”

बिहार चुनाव में महागठबंधन को और खासकर लालूजी की पार्टी को जैसी सफलता मिली उसे देखते हुए लालू अगर कह रहे हैं कि बिहार चुनाव में भाजपा की दाल नहीं गली तो गलत भी नहीं कह रहे लेकिन फिलहाल दिन-ब-दिन ‘बड़ी’ होती भाजपा के लिए गल जाने की बात हजम नहीं होती। लालूजी और उनके छोटे भाई अक्सर भूल जाते हैं कि बिहार से बाहर जहाँ और भी हैं। और हाँ, लालूजी से ये पूछना भी बनता है कि क्या उनके गठबंधन, उनके दल और खास तौर पर उनके लिए क्या सचमुच ‘गाय’ ने केवल दूध ही दिया है अब तक, कभी वोट नहीं दिलाए..?

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

 

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लालू, मांझी और यूपी का हासिल

यूपी चुनाव को लेकर बिहार के दो बड़े नेताओं ने अपना-अपना ‘स्टैंड’ स्पष्ट कर दिया। राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने जहाँ महागठबंधन के शेष दो साथियों – जेडीयू और कांग्रेस – से अपना रास्ता अलग करते हुए यूपी चुनाव से दूर रहने का फैसला किया (और फिर तेजस्वी ने अखिलेश यादव के काम की सराहना करते हुए सपा को समर्थन देने की बात कही), वहीं ‘हम’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष जीतन राम मांझी ने भी अपने गठबंधन (एनडीए) से अलग रास्ता अख्तियार किया, यूपी में अकेले लड़ने का फैसला कर।

कहने वाले भले ही कहें कि लालू ने यूपी में चुनाव ना लड़ने का फैसला कर मुलायम से अपनी रिश्तेदारी निभाई, लेकिन सच यह है कि उन्होंने बड़ा ही परिपक्व निर्णय लिया है। उन्हें पता था कि यूपी में उनकी ‘हैसियत’ उससे अधिक नहीं जितनी मुलायम की बिहार में है। ऐसे में वो अधिक-से-अधिक ‘वोटकटवा’ की भूमिका ही निभा सकते थे वहाँ। यूपी की मृग-मरीचिका में बिना भटके ही उन्हें यह कहने का मौका भी मिल गया कि भाजपा-विराधी वोटों के ध्रुवीकरण के लिए उन्होंने ये फैसला किया। अच्छा है कि लालू नीतीश की तरह किसी ‘मुगालते’ के शिकार नहीं हुए। अपने कद को अखिल भारतीय करने के ‘मद’ में नीतीश ये मानने को तैयार ही नहीं कि यूपी में उनकी ‘बंद मुट्ठी लाख की, खुल गई तो खाक की’।

बहरहाल, नीतीश के लड़ने और लालू के ना लड़ने की बात तो समझ में आती है लेकिन मांझी ने किस गलतफहमी का शिकार हो यूपी जाने की सोची, ये समझ के परे है। बिहार में तो बमुश्किल अपनी सीट बचा पाए वो, यूपी में जाने क्या मिलने वाला है उन्हें! हाँ, यूपी के बिहार से सटे कुछ इलाकों में दलित वोटों के मामले में उनकी स्थिति कुछ-कुछ वैसी जरूर मानी जा सकती है जैसी कोसी के इलाके में यादव वोटों के मामले में जन अधिकार पार्टी के पप्पू यादव की। तो क्या यूपी में वो भाजपा के हक में उसके साथ दोस्ताना मैच खेल रहे हैं, जैसे पप्पू ने खेला था बिहार में?

वैसे मांझी का ये दोस्ताना मैच मुलायम के लिए भी हो सकता है और इसके दो बड़े स्पष्ट कारण हैं। पहला ये कि यूपी को जीतने के लिए मायावती के वोटबैंक में सेंध लगाने की जरूरत भाजपा से कहीं अधिक सपा को है और दूसरा ये कि उन्हें इस ‘मैच’ के लिए तैयार करने की खातिर मुलायम के समधी लालू हैं यहाँ। मांझी के लिए लालू का ‘सॉफ्ट कॉर्नर’ महागठबंधन के जन्मकाल से ही जगजाहिर है।

खैर, बिहार के इन नेताओं को यूपी से क्या हासिल होगा, ये तो वक्त ही बताएगा लेकिन यूपी के चुनाव ने बिहार के दो बड़े गठबंधनों की गांठ ढीली कर दी है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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“मुझसे बड़ा एक्टर और कौन है”: लालू प्रसाद यादव

मौजूदा दौर के मंझे हुए अभिनेता इरफान खान कल ईद के दिन अपनी फिल्म ‘मदारी’ के प्रमोशन के लिए पटना में थे। इस दौरान उन्होंने आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव से मुलाकात की। अपने खास अंदाज के लिए मशहूर लालू ने इस मौके पर इरफान को ईद की बधाई देने के साथ-साथ उन्हें फिल्म हिट करने के ‘टिप्स’ भी दिए और आखिर में अपने इस दावे से इरफान को लाजवाब कर दिया कि मुझसे बड़ा एक्टर और कौन है?

बहरहाल, फिल्म में अपने किरदार को ध्यान में रख इरफान लालू से मिलने डमरू के साथ आए थे। मजे की बात यह कि लालू ने उस डमरू को बजाया भी। एक तो ईद का माहौल और उस पर मस्तमौला लालू। उन्होंने ये भी कह ही डाला कि मुझ पर अगर फिल्म बनी तो मैं ही मेन रोल में रहूँगा। मुझसे अच्छी एक्टिंग कोई नहीं कर सकता। हाँ, अभिनेत्री कौन रहेगी, इसका फैसला इरफान कर सकते हैं।

लालू ने इरफान को ‘टिप्स’ देने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने इरफान को सलाह देते हुए कहा कि आम आदमी को फोकस करती हुई फिल्मों में काम करिए, फिल्म सुपर हिट हो जाएगी। देश में आम आदमी सबसे ज्यादा परेशान है। इतने कानून बने, लेकिन आम आदमी को न्याय नहीं मिला। केन्द्र सरकार ने भी उनकी उपेक्षा की है। जातीय जनगणना रिपोर्ट में हर तरह से ‘पिछड़े’ आम आदमी का खुलासा नहीं किया गया है, जबकि गाय-भैंस-बकरी सबकी संख्या बता दी गई है।

बता दें कि इरफान की फिल्म ‘मदारी’ 22 जुलाई को रिलीज होने वाली है। इरफान ने बताया कि इस फिल्म में एक व्यक्ति के ‘जमूरा’ से ‘मदारी’ बनने की कहानी दिखाई गई है, जिसमें एक आम आदमी के संघर्ष की झलक देखी जा सकती है। इसमें किसी राज्यविशेष पर फोकस नहीं है बल्कि यह फिल्म सिस्टम की खामियों को दिखाती है।

चलते-चलते:

अब ये लालूजी से कौन पूछे कि जब अपने ऊपर बनने वाली फिल्म में हीरो वो खुद रहेंगे तो अभिनेत्री का फैसला उन्होंने इरफान पर क्यों छोड़ा? राबड़ीजी राज्य चला सकती हैं तो क्या उनकी सरपरस्ती में अभिनेत्री का किरदार नहीं निभा सकतीं?

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप  

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लालूजी, ‘मानसिक आज़ादी’ की ये ‘लड़ाई’ अभी और इस तरह क्यों..?

बिहार में गरीबों को मानसिक आज़ादी 1990 के बाद मिली यानि लालू के मुख्यमंत्री बनने पर। जी हाँ, ये कहना है स्वयं आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव का। वे केवल इतना ही कहते तो एक बात थी, उन्होंने साथ में ये भी कहा कि उनके उलट भाजपा के लोग आरएसएस के गुरु गोलवलकर की विचारधारा पर चलते हैं। उनकी विचारधारा दलितों और गरीबों का दमन करने की है। उनका आरोप है कि उनके बार-बार कहने पर भी केन्द्र जातीय जनगणना से भागता रहा।

पटना में आयोजित एक कार्यक्रम में बोलते हुए लालू ने कहा कि हम और नीतीश अलग थे इसलिए भाजपा का दांव लोकसभा चुनाव में चल गया। संसद में जिस तरह केन्द्र के मंत्री भाषण दे रहे हैं, उसे देख अफसोस होता है कि हम वहाँ नहीं हैं। हम वहाँ होते तो उनको जवाब मिलता। उन्होंने कहा कि जेएनयू में कन्हैया ने मेरे और नीतीश कुमार के सवालों को उठाया तो केन्द्र सरकार उसे देशद्रोही कह रही है, जबकि वह खुद देशद्रोही है। नरेन्द्र मोदी के शासनकाल में ही जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान का झंडा फहराया गया।

लालू के अनुसार भाजपा राज्य सरकार को ‘अस्थिर’ करने का मौका खोज रही है। भाजपा के लोग कहते हैं कि लालू प्रसाद सरकार नहीं चलने देंगे। उन्होंने कहा कि लोगों में गलत संदेश ना जाय इसीलिए वे और नीतीश कुमार फूंक-फूंक कर कदम रखते हैं।

नीतीश के साथ अपनी एकजुटता बताने और जताने के लिए लालू ये कहना भी नहीं भूले कि राज्य सरकार का ‘सात निश्चय’ हमारा संकल्प है जिसे पूरा करना है। उक्त कार्यक्रम में कला-संस्कृति मंत्री शिवचंद्र राम, सहकारिता मंत्री आलोक मेहता, एससी-एसटी मंत्री संतोष निराला, पूर्व मंत्री श्याम रजक, विधायक चंदन राम, राजेन्द्र राम, मुंद्रिका सिंह यादव आदि उपस्थित थे।

बिहार की राजनीति में लालू की अहमियत जितना उनके समर्थक मानते हैं, शायद उससे कहीं अधिक उनके विरोधी। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि बिहार में जब भी ‘सामाजिक न्याय’ की बात होगी, वो लालू के बिना पूरी नहीं होगी। पर जहाँ तक गरीबों को मानसिक आज़ादी दिलाने के दावे का प्रश्न है, बेहतर यह होता कि लालू ये औरों को कहने देते। अगर उनका ‘अवदान’ सचमुच इतना बड़ा है तो समय उसका ‘मूल्यांकन’ हर हाल में करेगा। ‘मानसिक आज़ादी’ की ये ‘लड़ाई’ अभी और इस तरह क्यों..?

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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