एक ओर लालू-नीतीश-कांग्रेस का महागठबंधन, दूसरी ओर नरेन्द्र मोदी की अगुआई में एनडीए, तीसरी ओर मुलायम की ‘थर्ड फ्रंट’ को लेकर कोशिशें… लेकिन बिहार चुनाव का ‘एक्स’ फैक्टर पप्पू या ओवैसी होने जा रहे हैं। मत होइए हैरान, समीकरण कुछ ऐसा ही कह रहे हैं। इस बार के चुनाव में ये दोनों ‘निर्णायक’ प्रभाव डाल सकते हैं और वो भी कोसी-पूर्णिया के इलाके से। कोसी और पूर्णिया प्रमंडल की सीटों पर एनडीए और महागठबंधन की नज़र जितनी अपने प्रदर्शन पर होगी, उससे कहीं अधिक पप्पू और ओवैसी पर होगी। ये दोनों मतदाताओं पर जितना असर छोड़ेंगे, उतनी ही बीजेपी की बांछें खिलेंगी और इन ‘सूरमाओं’ के धाराशायी होने पर जश्न महागठबंधन के खेमे में होगा। चलिए, समझने की कोशिश करते हैं कैसे..?
पप्पू यादव का राजनीतिक करियर बिहार में लगभग ढाई दशक पुराना है। इस अवधि में वे कई पार्टियों में आते-जाते रहे… विवादों से घिरते, केस झेलते और जेल जाते रहे… इन सबके बीच कुछ मौकों को छोड़ ज्यादातर चुनावों में स्वयं जीतते और पत्नी रंजीत रंजन को जिताते रहे… समानान्तर रूप से संगठन ‘युवा-शक्ति’ चलाते रहे… और अब ‘जनअधिकार’ नाम से उन्होंने अपनी पार्टी भी बना ली है। पार्टी बनाने से पहले भी वो खुद को समूचे बिहार के राजनीतिक पटल पर रखने की पुरजोर कोशिश करते रहे हैं। अब तो इस मामले में इतने ‘कांसस’ हो गए हैं वो कि ‘छोटे’ मसले पर भी ‘बड़ी’ बात बोलना उनकी आदत बनती जा रही है। उनकी तमाम कोशिशें अपनी जगह हैं और ये सच अपनी जगह कि उनकी पार्टी का ‘जन’ और ‘अधिकार’ दोनों बिहार में अगर कहीं है, तो फिलहाल कोसी और पूर्णिया के इलाके में ही। अभी पप्पू मधेपुरा से सांसद हैं और पत्नी रंजीत सुपौल से। पूर्णिया का प्रतिनिधित्व वो कई बार कर चुके हैं और अच्छी पैठ रखते हैं। कटिहार, अररिया, किशनगंज में भी उनकी चहलकदमी रही है। कुल मिलाकर वर्तमान पूर्णिया और कोसी कमिश्नरी पर उनका असर है, इसमें कोई दो राय नहीं।
अब बात ओवैसी की करें। कौन हैं ये ओवैसी जिनकी चर्चा बिहार में और वो भी पूर्णिया और कोसी के ‘सीमांचल’ कहलाने वाले इलाके में हो रही है और इसी इलाके से आनेवाले तस्लीमुद्दीन, तारिक अनवर और शाहनवाज जैसे मुस्लिम नेताओं की मौजूदगी के बावजूद और उनसे ज्यादा हो रही है..? देश के राजनीतिक फलक पर भले ही इस शख्स़ का ख़ास वज़ूद अभी ना दिखता हो लेकिन बहुत कम समय में मुस्लिम राजनीति का ‘चेहरा’ बनने में कामयाब तो ये हो ही गया है। फिलहाल आंध्रप्रदेश के हैदराबाद से सांसद असदउद्दीन ओवैसी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन यानि एआईएमआईएम के प्रमुख हैं। आंध्र में इनका परिवार कुछ-कुछ वैसा ही है जैसा महाराष्ट्र में ठाकरे परिवार। इतने कम दिनों में मुसलमान इन्हें अपना ‘मोदी’ कहने लगे हैं तो ये अकारण नहीं है। कहने की जरूरत नहीं कि दिल्ली के औरंगजेब रोड का नाम डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के नाम पर रखे जाने का विरोध करने वाले ओवैसी मुस्लिम कट्टरपंथ के हिमायती हैं। अपने बयानों और भाषणों से ‘उन्माद’ पैदा करने में फिलहाल इनकी कोई सानी नहीं है। अपनी इसी ‘काबिलियत’ और सुर्खियों में बने रहने की ‘कला’ को ओवैसी बिहार में भुनाना चाहते हैं। यही कारण है कि एनडीए जहाँ इनसे ‘उम्मीद’ लगाए बैठा है वहीं महागठबंधन इनमें अपनी ‘नाउम्मीदी’ की झलक देख रहा है।
कहने की जरूरत नहीं कि पप्पू और ओवैसी दोनों को बीजेपी का ‘मौन समर्थन’ है जो अब चीख-चीख कर ‘बोलने’ लगा है। कुशवाहा के अलग होने के बाद नीतीश लगभग उस झटके से उबर गए थे लेकिन मांझी का दिया जख़्म अभी ताजा है। ऐसे में उन्हें लालू के ‘माय’ समीकरण से बड़ी उम्मीद थी लेकिन पप्पू और ओवैसी उसी वोटबैंक में बहुत ‘घातक’ सेंध लगा रहे हैं। वैसे भी बीजेपी की सारी चिन्ता इस चुनाव में लालू के इर्द-गिर्द ही टिकी हुई है। नीतीश के साथ ‘विकास’ का जो टैग है उसका हल बीजेपी को मोदी के ‘विकास’ टैग से निकल जाने की उम्मीद है लेकिन लालू के ‘माय’ का किला उसे अभेद्य दिख रहा था। अब इसका हल पप्पू और ओवैसी से निकलता उसे दिख रहा है।
पप्पू का ताल्लुक कभी सपा, कभी एनसीपी तो कभी राजद से रहा है। अपने पूरे करियर में वे किसी दलविशेष के प्रति समर्पित नहीं रहे। या यूँ कहें कि उनकी महत्वाकांक्षा ने उन्हें समर्पित होने नहीं दिया। जिस लालू से वे राजद का ‘उत्तराधिकार’ मांग रहे थे उसकी सफलता या संघर्ष में कभी उनका याद रखने लायक कोई योगदान नहीं रहा। सब दिन अपनी राजनीति के केन्द्र में वो स्वयं रहे। पप्पू भी जानते थे कि जो चीज वो मांग रहे हैं वो उनकी है ही नहीं। उन्हें तो बस किसी बहाने लालू से ‘लड़ना’ था और जितना उन्हें लड़ना था उससे कहीं अधिक बीजेपी को उन्हें ‘लड़वाना’ था। ऐसा ही कुछ ओवैसी के साथ है। आरएसएस और बीजेपी को अपना दुश्मन नंबर वन बताने वाले ओवैसी बिहार में अपने आने का उद्देश्य बीजेपी को कमजोर करना बताते हैं। लेकिन ये बात बड़ी हास्यास्पद लगती है कि उनके आने से कोसी और पूर्णिया के ‘सीमांचल’ में बीजेपी को होनेवाले फायदे का जो गणित कोई बच्चा भी बता सकता है, उसे वो ख़ुद नहीं जान रहे हैं..!
अररिया, कटिहार, पूर्णिया और किशनगंज – इन चार जिलों से मिलकर बने ‘सीमांचल’ की आबादी तकरीबन एक करोड़ है जिसमें मुस्लिम आबादी 40 प्रतिशत है। किशनगंज में तो 69 फीसदी आबादी मुस्लिमों की है। एक आकलन के मुताबिक सीमांचल की 21 सीटों पर ओवैसी स्पष्ट प्रभाव डाल सकते हैं। सीमांचल में आर्टिकल 371 के तहत रिजनल डेवलपमेंट काउंसिल की मांग वो यूँ ही नहीं उठा रहे हैं। जानकार तो यहाँ तक बता रहे हैं कि सीमांचल यानि कोसी-पूर्णिया डिविजन की 21 सीटों के अलावे भागलपुर-मुंगेर डिविजन की 15 सीटों पर भी ओवैसी प्रभाव डाल सकते हैं। बताना जरूरी होगा कि बिहार की 10.50 करोड़ आबादी में 17 फीसदी मुस्लिम हैं और बिहार की कुल 243 विधान सभा सीटों में लगभग 50 सीटों के चुनाव परिणाम को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। ऐसे में बीजेपी से जो भी ‘डील’ हुई हो ओवैसी की, आंध्र और महाराष्ट्र में पैर पसार चुकने के बाद बिहार के इस चुनाव से मुसलमानों का ‘बड़ा’ नेता बनने का अवसर भी वो खोना नहीं चाहते।
मुसलमानों के बाद इस इलाके में यादव बड़ी तादाद में हैं। सीमांचल के चार जिलों को छोड़ दें तो शेष जिलों – मधेपुरा, सहरसा और सुपौल – में यादव मुसलमान से कहीं ज्यादा हैं और हर लिहाज से प्रभावशाली हैं। सीमांचल में भी यादवों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। यादवों के इसी वोट बैंक पर पप्पू निगाह गड़ाए बैठे हैं। देखा जाय तो उनका दायरा एक अर्थ में ओवैसी से अधिक बड़ा हो जाता है कि ओवैसी जहाँ मुस्लिम बहुल सीटों पर ही छाप छोड़ेंगे वहीं पप्पू कमोबेश इस इलाके की हर सीट पर कुछ-ना-कुछ बटोर लेंगे। यादव के साथ ही कुछ मुस्लिम और कुछ अन्य जातियों के वोट भी उन्हें मिल सकते हैं। मुसलमान मुख्यमंत्री की बात पप्पू सोची-समझी रणनीति के तहत ही कर रहे हैं। लालू के ‘माय’ के समानान्तर वो अपना ‘माय’ खड़ा करना चाहते हैं।
ये भी सच है और तमाम दावों के बावजूद पप्पू और ओवैसी दोनों जानते हैं कि इन्हें सीटें इक्की-दुक्की ही मिल पाएंगी। यहाँ तक कि ना भी मिले। लेकिन ‘कोसी’ और ‘पूर्णिया’ की ‘कुंजी’ कमोबेश इन्हीं दोनों के हाथों में होगी। ‘प्रतीकात्मक’ असर ओवैसी का ज्यादा दिख रहा है तो ‘व्यावहारिक’ असर पप्पू का। लेकिन राजनीति दोनों में से किसी की ‘सार्थक’ और ‘सकारात्मक’ दिशा में नहीं है, ये कहने में कोई गुरेज़ नहीं होना चाहिए किसी को।
मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप