लोकसभा चुनाव में अभी तीन साल बाकी हैं लेकिन जेडीयू ने नीतीश कुमार को अभी से मैदान में उतार दिया है। पटना में पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में एक ओर अध्यक्ष के तौर पर नीतीश की ताजपोशी की गई तो दूसरी ओर गैरभाजपा दलों का एका करने संबंधी प्रस्ताव पारित किया गया। संदेश स्पष्ट है कि नीतीश अब औपचारिक रूप से राहुल गांधी, मुलायम सिंह यादव, ममता बनर्जी और अरविन्द केजरीवाल जैसे प्रधानमंत्री पद के दावेदार नेताओं के क्लब में शामिल हो गए।
ये स्पष्ट है कि बिहार की महागठबंधन सरकार में शामिल कांग्रेस गैरभाजपा विकल्प के तौर पर कभी नीतीश के नाम पर सहमत नहीं हो सकती और ना ही राजद समेत अन्य दलों ने अभी इस संबंध में अपनी राय खुलकर जाहिर की है। (हाँ, नीतीश को ‘पीएम मैटेरियल’ बताना अलग बात है।) लेकिन नीतीश और उनकी टीम जल्दी में दिख रही है। इस जल्दबाजी से उन्हें दो कारण दिख रहे हैं। पहला यह कि राष्ट्रीय स्तर पर अभी जैसा ‘मोदीमय’ माहौल है उसमें उनके विकल्प के तौर पर आक्रामक होकर आने का साहस और तैयारी किसी के पास नहीं दिख रही और इसका फायदा नीतीश और उनकी टीम उठाना चाहती है। दूसरा ये कि बिहार चुनाव के परिणाम के बाद नीतीश की जैसी करिश्माई छवि बनी है उस पर वक्त की धूल-मिट्टी पड़ने से पहले ही उसे भुना लेने की कोशिश की जा रही है।
नीतीश कुमार मंझे हुए नेता हैं और राजनीति की बिसात पर गोटियां बिठाना उन्हें खूब आता है। उन्हें पता है कि बड़े लक्ष्य के लिए केवल नारेबाजी से काम नहीं चलता, धरातल पर भी बहुत कुछ कर के दिखाना होता है। यही कारण है कि एक ओर वो संघमुक्त भारत का नारा दे रहे होते हैं तो दूसरी ओर शराबबंदी को राष्ट्रीय अभियान बनाने की बात करते हैं। महिला आरक्षण और स्टूडेंट क्रेडिट कार्ड जैसे फैसलों को नीतीश अब राष्ट्रीय फलक पर अपने विकास मॉडल के तौर पर पेश करना चाहते हैं।
यूपी चुनाव से पहले अजित सिंह के रालोद और बाबूलाल मरांडी के जेवीएम को मिलाकर अपना ‘कैनवास’ बड़ा करने की कोशिश नीतीश के मिशन 2019 का ही हिस्सा है। यूपी में उनकी सफलता या असफलता से भारत की भावी राजनीति की तस्वीर बहुत हद तक साफ हो जाएगी, इसमें कोई दो राय नहीं।
‘मधेपुरा अबतक’ के लिए डॉ. ए. दीप