किताबें झांकती हैं बंद आलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं,
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं,
अब अक्सर गुजर जाती हैं कम्प्यूटर के पर्दों पर..!
23 अप्रैल, विश्व पुस्तक दिवस पर गुलजार की ये पंक्तियां कितनी प्रासंगिक लगती हैं। मानव सभ्यता के विकास में किताबों की कितनी बड़ी भूमिका रही है, कहने की जरूरत नहीं। लेकिन आज उन किताबों की जगह कम्प्यूटर, लैपटॉप और स्मार्टफोन लेते जा रहे हैं। आश्चर्य की बात तो ये कि इंटरनेट की सुविधा से लैस इन उपकरणों को किताबों की जगह रख हम स्वयं को अधिक विकसित समझने की भूल भी कर रहे हैं। लेकिन किताबों का कोई विकल्प नहीं हो सकता, इसमें जो तहजीब है, जो स्थायित्व है, जो अपनत्व है, मर्म को छूने की जो अद्भुत कला और अतीत और वर्तमान के बीच संवाद स्थापित करने की जो कारीगरी है वो किसी और चीज में संभव नहीं। आज के तमाम साधन ‘सूचना’ चाहे जितनी दे लें, ‘ज्ञान’ के लिए हमें हमेशा पुस्तकों की शरण में ही जाना होगा और इसे हमलोग जितनी जल्दी समझ लें हमारे और हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए उतना ही बेहतर होगा।
बहरहाल, आज के अधिकांश बच्चे जो विश्व पुस्तक दिवस मना भी रहे होते हैं, उनमें से कई ये नहीं जानते होंगे कि 23 अप्रैल 1564 को विश्व के सार्वकालिक महानतम साहित्यकारों में एक विलियम शेक्सपियर का निधन हुआ था। अपने जीवनकाल में 35 नाटक और 200 से ज्यादा कविताओं की रचना कर विश्व साहित्य में उन्होंने अप्रतिम योगदान दिया था। उसी को देखते हुए यूनेस्को ने 1995 और भारत सरकार ने 2001 में 23 अप्रैल के दिन को विश्व पुस्तक दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की थी। लेकिन यह देखना अत्यंत पीड़ादायी है कि यह दिन अब रस्म अदायगी से ज्यादा कुछ नहीं।
आपको जानना चाहिए कि दुनियाभर की 285 यूनिवर्सिटी में ब्रिटेन और इटली की यूनिवर्सिटी ने संयुक्त अध्ययन में यह निष्कर्ष निकाला है कि जो छात्र डिजिटल तकनीक का अधिकतम उपयोग करते हैं, वे पढ़ाई के साथ पूरी तरह नहीं जुड़ पाते और फिसड्डी साबित होते हैं। ज्यादा इंटरनेट के इस्तेमाल से उन्हें अपेक्षित परिणाम नहीं मिलता और अंतत: उनमें अकेलेपन की भावना घर कर जाती है। यही नहीं, मनोभावों पर नियंत्रण रखना भी वे नहीं सीख पाते और ना ही अपनी भावी योजना और शैक्षिक वातावरण में बेहतर तालमेल बना पाते हैं।
हम ये हरगिज ना भूलें कि किताबों की उपेक्षा हमारे पिछड़ जाने का संकेत है। किताबों से दिनोंदिन बढ़ती दूरी हमें भौतिकवाद, नैतिक पतन और आत्ममुग्ध आधुनिकता से ग्रसित कर रही है। अगर हमें अपने होने का सही अर्थ पाना है तो किताबों से जुड़ना ही होगा। हम ये समझें और उस अनुरूप कदम उठाने को संकल्पित हों, यही पुस्तक दिवस की सार्थकता होगी।