Lalu-Nitish-Narendra-Modi in Bihar Election 2015

नरेन्द्र मोदी और नीतीश नहीं, अब भी लालू हैं बिहार की राजनीति की धुरी..!

बिहार चुनाव की घोषणा के बाद सारे दल अपनी-अपनी रणनीति को अन्तिम रूप देने में जी-जान से जुटे हैं। प्रथम चरण के नोटिफिकेशन के साथ-साथ ही भाजपा के 43 प्रत्याशियों की पहली सूची भी आ गई। अब कहाँ दिन का चैन और कहाँ रातों की नींद..! मतगणना तक सबके मन के तार कितने सुरों में बजेंगे, क्या मजाल कि कोई उसकी गिनती कर दे। बहरहाल, ऊपरी तौर पर सीटों का बंटवारा भले ही हो गया हो, अन्दरूनी तौर पर अभी भी दोनों ‘गठबंधन’ सीटों की समस्या सुलझाने में उलझे हुए हैं। जब तक ये तमाम दल अन्तिम रूप से किसी निष्कर्ष पर पहुँचें, क्यों ना हमलोग ये पड़ताल करें कि इस चुनाव में बिहार की राजनीति की धुरी कौन हैं – ‘केन्द्र’ के शीर्ष पर बैठे नरेन्द्र मोदी, ‘विकास’ की अग्निपरीक्षा दे रहे ‘(विकास ?)पुरुष’ नीतीश कुमार या अपने (और अपनी अगली पीढ़ी की भी) ‘अस्तित्व’ की अब तक की सबसे बड़ी लड़ाई लड़ रहे लालू प्रसाद यादव..? ये सवाल सुनने में शायद आसान लगा हो आपको, लेकिन इसका जवाब एक झटके में दे दें तो मान जाऊँ मैं। अगर इस सवाल का जवाब ढूँढ़ लें तो हम बिहार में होने जा रहे चुनाव ही नहीं, बिहार को भी समझ लेंगे।

इसमें कोई दो राय नहीं कि बिहार की राजनीति को पिछले दस वर्षों से नीतीश कुमार ने डोमिनेट किया है। राष्ट्रीय राजनीति में नरेन्द्र मोदी के उदय से पहले तक बिहार में सब कुछ ‘नीतीशमय’ दिख रहा था। उनका ‘विकासपुरुष’ वाला टैग आमलोगों से लेकर देश-विदेश के मीडिया तक में खूब चला और ऐसा चला कि नीतीश ने पहले ‘विकास’ के नाम पर नरेन्द्र मोदी के ‘वैकल्पिक’ (याद कीजिए समग्र विकास के लिए ‘गुजरात मॉडल’ अच्छा कि ‘बिहार मॉडल’ की लड़ाई) और फिर ‘साम्प्रदायिकता’ के नाम पर ‘विपरीत’ ध्रुव के रूप में खुद को स्थापित करना चाहा। ये बताने और जताने की कोशिश भी हुई कि एनडीए में अटल के बाद की पीढ़ी में उनके जैसी स्वीकार्यता किसी की हो सकती है तो नीतीश की। यहाँ तक नीतीश और मोदी लगभग बराबर पर चल रहे थे कि अचानक तमाम अटकलों को खारिज करते हुए नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया और फिर तो उनकी ‘सुनामी’ ही चल पड़ी। हाँ, सुनामी ही कहना ठीक होगा क्योंकि मोदी जिस रफ्तार से आए और छाए वो लगभग कल्पनातीत था।

राष्ट्रीय राजनीति में नरेन्द्र मोदी के उदय और उनके साथ नीतीश के ‘अहं’ के टकराव की परिणति दो रूपों में हुई। पहली तो ये कि एनडीए से वे अलग हुए और बिहार में उनकी अकेले की सरकार बनी और दूसरी 2014 के लोकसभा चुनाव में उनकी भयानक हार हुई और अपनी ‘झेंप’ छिपाने के लिए उन्हें मांझी का चेहरा आगे करना पड़ा। यही वो बिन्दु है जहाँ से बिहार की राजनीति में एक के बाद एक कई परिवर्तन हुए।

लोकसभा चुनाव ने जहाँ बिहार में बीजेपी को सबसे बड़ी पार्टी होने का मौका दे दिया, वहीं रामविलास पासवान और उपेन्द्र कुशवाहा के लिए इसने ‘संजीवनी’ का काम किया। वे अचानक नीतीश को ‘ललकारने’ की स्थिति में आ गए। यही नहीं, लोकसभा चुनाव में जो मांझी अपने क्षेत्र तक में ठीक से मुकाबले में नहीं थे, वे नीतीश की ‘अचानक’ हुई ‘कृपा’ से मुख्यमंत्री बन बैठे और कुछ दिनों तक ‘औपचारिक’ अहसान मानने के बाद उन्हें ही आँख दिखाने लगे। ये सचमुच बुरा वक्त था नीतीश के लिए। इतना बुरा कि उन्हें अन्तत: उसी लालू के पास जाना पड़ा जिनके विरोध में कभी उन्होंने अपनी समता पार्टी खड़ी की थी। बाद में जेडीयू के बनने और एनडीए से अलग होने तक उनकी पूरी राजनीति इसी ‘लालूविरोध’ पर टिकी रही। अब अपना अस्तित्व बचाने के लिए उसी लालू से हाथ मिलाना विकल्प रह गया था उनके लिए। खैर, लोकसभा चुनाव के बाद हुए विधानसभा के उपचुनाव में इसका उन्हें फायदा भी मिला और नीतीश-लालू फिर से ‘छोटे भाई-बड़े भाई’ की भूमिका में आ गए।

नीतीश अब लालू की ‘शरण’ में थे। बदले परिदृश्य में नीतीश के लालू की ‘गोद’ में बैठने की बात हो रही थी और लालू मीडिया में और मंच से ‘लाड़’ जताते हुए ये बोलने से नहीं चूक रहे थे कि गोद में छोटा भाई नहीं बैठेगा को कौन बैठेगा। जरूरत लालू की भी कम नहीं थी। ‘जहर’ पीकर भी तेजप्रताप और तेजस्वी का ‘कैरियर’ बनाने के लिए उन्हें नीतीश को मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकारना ही पड़ा। लेकिन जब आप सत्ता में रहते हुए किसी की मदद लेने को हाथ बढ़ाते हैं तो आपका हाथ अपने आप नीचे हो जाता है। यही नीतीश के साथ हुआ।

जो लालू और नीतीश को करीब से नहीं जानते हैं, वे भी वक्त की इस करवट को इन दोनों के चेहरे पर देख सकते हैं और फर्क समझ सकते हैं। नीतीश के चेहरे से जहाँ उनके बैकफुट पर होने का भाव झाँकता है वहीं लालू के चेहरे की पुरानी चमक बहुत हद तक लौट गई दिखती है। ‘स्वाभिमान रैली’ ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। वहाँ ना केवल लालू अन्तिम वक्ता थे बल्कि मौजूद भीड़ ने भी बता दिया कि ‘असर’ जो भी हो नीतीश का लेकिन ‘जादू’ तो लालू का ही चलता है बिहार में। वैसे भी तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद लालू का वोटबैंक उनके लिए जितना समर्पित है, उतना नीतीश का बनाया वोटबैंक नीतीश के लिए नहीं। यहाँ तक कि जिन महादलितों को सामाजिक और राजनीतिक ‘सुविधा’ देकर ‘अपना’ बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी नीतीश ने, उनके नेता भी अब मांझी बन बैठे हैं।

नरेन्द्र मोदी एक नहीं चार बार आए बिहार और ‘रोजाना जंगलराज का डर’ दिखा गए और साथ में गुजरात का संबंध ‘यदुवंश’ से जोड़ गए, सुशील मोदी समेत बिहार भाजपा के तमाम नेता अगर नीतीश को घेर रहे हैं तो सबसे अधिक लालू से हाथ मिलाने को ही लेकर, सोनिया बिहार आती हैं और नीतीश के ‘नेतृत्व’ के साथ लालू के ‘सराहनीय योगदान’ को चिह्नित करना नहीं भूलतीं, पप्पू को अगर राजनीतिक विरासत चाहिए तो लालू की ही, बीजेपी अगर पप्पू की पीठ पर हाथ रखती है तो लालू का ही वोट काटने, ‘मुलायम’ को ‘कठोर’ बनाया जाता है तो समधी लालू से दूर करने, रामकृपाल यादव मंत्री और भूपेन्द्र यादव बिहार भाजपा के प्रभारी बनते हैं तो लालू को ही कमजोर करने, पासवान को ‘मौसम वैज्ञानिक’ कहे जाने की खीझ है तो लालू से ही, एनडीए में मनमाफिक सीटें ना मिलने पर मांझी के लिए जिनसे हाथ मिलाने की चर्चा होती है तो वो भी लालू ही हैं – क्या अब भी इसमें कोई संदेह है कि 1990 से लेकर अब तक यानि पच्चीस साल बाद भी लालू ही बिहार की राजनीति की धुरी हैं..?

लालू का ठेठ बिहारी अंदाज उन्हें औरों से अलग करता है। साधारण तबके से आनेवाला बिहारी खुद को उनके अधिक करीब पाता है। वे बिहार में पिछड़ों को राजनीति की मुख्यधारा में लाए इस सच्चाई को नकारना मुश्किल है। ये भूलना भी मुश्किल है कि रेल मंत्रालय को ज्यादातर मंत्री भले ही बिहार से मिले हों लेकिन उस रूप में भी किसी ने अलग छाप छोड़ी है तो वो लालू ही हैं। तमाम विसंगतियों और विरोधाभासों के बावजूद लालू की प्रासंगिकता बनी हुई है। रिक्शे पर जाकर और हाथी पर आकर वो ‘जेलयात्रा’ को भी महिमामंडित कर देंगे और आप ये पूछना भूल जाएंगे उनसे कि आखिर जेल गए क्यों थे। वैसे भी, इतिहास गवाह है कि बिहार की जनता ‘भूलने’ की ‘भूल’ करती रही है और इस बार भी वो कुछ लालू का भूलेगी, कुछ नीतीश का तो कुछ नरेन्द्र मोदी का। और अन्त में जो परिणाम आएगा उसे भी वो पाँच साल तक झेलेगी सब कुछ भूलकर।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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