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‘महा’रैली और ‘महा’पैकेज ने ‘महागठबंधन’ की नींद उड़ाई

आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बिहार के सहरसा में परिवर्तन रैली की। ये एक बड़ी रैली थी। मुजफ्फरपुर और गया के बाद ये तीसरी परिवर्तन रैली है। मोदी को सुनने और देखने को जैसी भीड़ जुटी और सहरसा समेत आसपास के बड़े इलाके में जो माहौल था उससे बीजेपी और एनडीए के तमाम रणनीतिकार गदगद होंगे। एक तरफ ‘महागठबंधन’ के गढ़ कोशी में ‘महा’रैली और दूसरी तरफ यहाँ आने से पूर्व आरा में बिहार के लिए ‘महा’पैकेज। बिहार जीतने की तैयारी में मोदी अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते। उम्मीद की जा रही थी कि सहरसा में ही वे बिहार के लिए विशेष पैकेज की घोषणा करेंगे लेकिन उन्होंने इस ‘बहुचर्चित’ और ‘बहुप्रतीक्षित’ घोषणा के लिए आरा को चुना और बिहार के लिए एक लाख पच्चीस हजार करोड़ के बड़े पैकेज की घोषणा की। इस पैकेज में बिहार को बिजली संयंत्र के लिए दिए जानेवाले चालीस हजार करोड़ शामिल नहीं हैं। इस तरह देखा जाय तो बिहार को दिया जानेवाला ‘तोहफा’ कुल एक लाख पैंसठ हजार करोड़ का है। आरा से प्रधानमंत्री मोदी ने और भी कई विकास योजनाओं की शुरुआत की।

प्रधानमंत्री द्वारा पैकेज की घोषणा के तत्काल बाद जेडीयू ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए इसे ‘राजनीतिक रिश्वत’ करार दिया। जाहिर है कि जेडीयू और उसके महागठबंधन के साथी राजद और कांग्रेस को ये पैकेज रास नहीं आएगा। जेडीयू ने बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने को लेकर बड़ा और लम्बा अभियान चलाया है और आसन्न विधानसभा चुनाव में इस मुद्दे को केन्द्र सरकार के विरुद्ध भुनाने की कोशिश भी वो जोरशोर से करती लेकिन मोदी और उनकी पार्टी ने विशेष पैकेज से इस मुद्दे की धार कुंद करने की जबरदस्त कोशिश की है।

बिहार का जंग जीतने के लिए मोदी की ये तमाम कोशिशें कितनी ‘प्रभावी’ होंगी ये तो आनेवाला वक्त बताएगा लेकिन इनके ‘लुभावी’ होने में कोई संदेह नहीं। इसमें कोई दो राय नहीं कि भाजपा इस पैकेज का चुनावी लाभ लेना चाहती है। बहुत सोच-समझकर इस पैकेज की रूपरेखा तय की गई और घोषणा के लिए चुनाव से ठीक पहले का समय चुना गया। लेकिन कौन-सी पार्टी और केन्द्र व राज्य की कौन-सी ऐसी सरकार है जो ऐसी घोषणाओं का चुनावी लाभ नहीं लेना चाहेगी..? इस ‘महा’पैकेज से भाजपा का राजनीतिक हित भी सधता है तो सधे, बिहार का हित भी इससे सध रहा है इससे क्या इनकार करना सम्भव है..? जेडीयू ने बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने को लेकर जो अभियान चलाया वो क्या केवल बिहार के हित के लिए था..? क्या उससे जेड़ीयू का राजनीतिक हित जुड़ा हुआ नहीं था..? अगर दलों की आपसी स्पर्द्धा में राज्य और देश का हित हो रहा हो तो ऐसी स्पर्द्धा हमेशा स्वागत योग्य है। हाँ, ये भी देखना होगा कि इस पैकेज को देने और चुनाव का मौसम बीत जाने के बाद मोदी सरकार की तत्परता बिहार के लिए कम ना हो।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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ये तेरा डीएनए, ये मेरा डीएनए

चुनाव के मुहाने पर खड़े बिहार में बहस छिड़ी है ‘डीएनए’ को लेकर। 25 जुलाई को मुजफ्फरपुर की रैली में प्रधानमंत्री मोदी ने भोज पर बुलाकर थाली छीन लेने की बात उठाई… उठाकर उसे मांझी प्रकरण से जोड़ा… और यहां से उन्हें सीधा नीतीश कुमार के ‘डीएनए’ का रास्ता मिल गया। राजनीति में एक रास्ते से हमेशा कई और रास्ते जुड़े होते हैं। जाहिर है कि मोदीजी बिहार में अपना रास्ता खोजते हुए ही ‘डीएनए’ तक पहुँचे थे और ‘डीएनए’ के बाद की क्रिया-प्रतिक्रिया देखकर उन्हें बिहार में जल्द ही होनेवाली अपनी एक के बाद एक तीन रैलियों में आगे का रास्ता तय करना था। लेकिन बीच के समय में ‘डीएनए’ की गेंद नीतीश के कोर्ट में थी। नौ-दस दिन के सोच-विचार के बाद उन्होंने ट्वीटर का रास्ता पकड़ा, ‘डीएनए’ को पूरे बिहार से जोड़ा और मोदीजी के नाम खुला पत्र लिख डाला। अब बहस छिड़ी है कि ‘डीएनए’ नीतीश का खराब है या पूरे बिहार का..? मोदी ने नीतीश का अपमान किया या बिहार की गरिमा भंग की..?

“हरि अनंत हरि कथा अनंता”। राजनीति में इस तरह की बहस होती ही रहती है और आम तौर ऐसी बहसें किसी निष्कर्ष पर पहुंचती भी नहीं। या यूं कहें कि बहस करने वाले बहस का कोई निष्कर्ष चाहते ही नहीं। बहसों को येन-केन-प्रकारेण ‘डायलिसिस’ के सहारे वो जिन्दा रखते हैं ताकि राजनीति की उनकी दूकान घोर वैचारिक मंदी में भी चलती रहे। लेकिन यहां मसला ‘डीएनए’ का है और चाहे-अनचाहे बिहार से जुड़ गया है तो इसकी पड़ताल तो होनी ही चाहिए।

डीएनए आखिर है क्या..? डी-ऑक्सीरोईबोन्यूक्लिक एसिड यानि डीएनए अणुओं की उस घुमावदार संरचना को कहते हैं जो हमारी कोशिकाओं के गुणसूत्र में पाए जाते हैं और इन्हीं में हमारा आनुवांशिक कूट मौजूद रहता है। डीएनए की खोज जेम्स वाटसन और फ्रांसिस क्रिक नाम के दो वैज्ञानिकों ने 1953 में की थी और मानव-जाति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण इस खोज के लिए उन्हें 1962 में नोबेल प्राइज से नवाजा गया था। लेकिन तब शायद ही उन्होंने इस बात की कल्पना की होगी कि आगे चलकर कभी यही डीएनए ‘विशुद्ध’ राजनीतिक बहस का केन्द्र भी बन सकता है।

यहां राजनीति के साथ ‘विशुद्ध’ शब्द का इस्तेमाल मैं बहुत सावधानी से और बहुत जोर देकर कर रहा हूँ क्योंकि ना तो डीएनए तक मोदी के पहुँचने में राजनीति के अलावा कुछ था और ना ही नीतीश द्वारा इसे बिहार से जोड़ देने में। दोनों नेता अपने-अपने तीर-तरकश को संभाले बस विधानसभाई ‘मछली’ की आँख देख रहे हैं। उन्हें इतनी फुरसत कहां कि डीएनए की ‘घुमावदार संरचना’ तक पहुंचे। हाँ, भोली-भाली जनता उनकी इस बहस से जितनी घूम जाय, उनका ‘डीएनए’ उतना ही सफल माना जाएगा।

हमें बहुत सचेत और सावधान होना होगा कि यहाँ ‘डीएनए’ की बहस में उस बिहार को घसीटा जा रहा है जहाँ की मिट्टी ने भारत को पहला सम्राट दिया और पहला राष्ट्रपति भी, जहाँ गांधी और जेपी के संघर्ष ने आकार लिया, जहाँ चाणक्य के राज-धर्म से लेकर कर्पूरी के समाज-धर्म तक मील के अनगिनत पत्थर हैं। और तो और जिस बुद्ध ने अपने ज्ञान से धर्म का और आर्यभट्ट ने ‘शून्य’ से विज्ञान का पूरा का पूरा ‘डीएनए’ ही बदल डाला, वे भी इसी बिहार के थे। ना तो किसी मोदी की सामर्थ्य हो सकती है कि इस बिहार के ‘डीएनए’ पर उँगली उठा दें और ना कोई नीतीश इतने बड़े हो सकते हैं कि इसके ‘डीएनए’ के प्रतीक हो जाएं।

सच तो ये है कि ‘डीएनए’ आज की राजनीति का दूषित हो गया है तभी ये बहस छिड़ी है या इस जैसी कोई भी बहस छिड़ती है। आज राजनीति में वो शुचिता, वो संस्कार, वो साधना ही नहीं रही जो हमें हमारी परम्परा से मिली। हम पड़ताल करें, अगर कर सकें, तो नीतीश हों या मोदी, जदयू हो या भाजपा, राजनीति के स्तर पर इनके ‘डीएनए’ में कोई खास फर्क नहीं दिखेगा। नाम बदल जाते हैं, चेहरे बदल जाते हैं, संदर्भ बदल जाते हैं और सरकार बदल जाती है, अगर कुछ नहीं बदल पाता है तो वो है आजाद भारत में राजनीति का लगातार गिरता स्तर और दिन-ब-दिन और अधिक प्रदूषित होता उसका ‘डीएनए’। मतभेद तो गांधी और अंबेडकर या नेहरू और पटेल में भी थे लेकिन बात कभी ‘डीएनए’ तक नहीं पहुंचती थी। ये तेरा डीएनए, ये मेरा डीएनए करने की जगह क्यों ना हमलोग उस ‘डीएनए’ की तलाश में जुटें जो हमारे इन पुरखों में था। तब शायद इस तरह की किसी बहस की ना तो कोई जरूरत होगी, ना गुंजाइश।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

 

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भारत तेरी संसद मैली हो गई… सत्ता के पाप धोते-धोते

ललित मोदी और व्यापम के मुद्दे पर सुषमा, वसुंधरा और शिवराज के इस्तीफे को लेकर कांग्रेस अड़ी हुई है। संसद ठप्प है। गतिरोध बढ़ता जा रहा है। संसद के इतिहास में पहली बार स्पीकर ने एक साथ पच्चीस सांसदों को निलंबित किया है। ये सांसद कांग्रेस के हैं। इस निलंबन के विरोध में सोनिया गांधी, राहुल गांधी, मनमोहन सिंह, एके एंटनी समेत कांग्रेस के तमाम नेता संसद के बाहर प्रदर्शन कर रहे हैं।

लोकसभा चुनाव में अपनी ऐतिहासिक पराजय के बाद अस्तित्व की लड़ाई रह रही कांग्रेस अब आक्रामक हो चली है। पहले तो कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी अपने ‘अज्ञातवास’ के बाद बगावती बयानों और अप्रत्याशित दौरों के साथ एकदम नए अवतार में सामने आए और अब पूरी पार्टी उनके नक्शेकदम पर चल पड़ी है। अपने सांसदों के निलंबन को कांग्रेस लोकतंत्र के लिए काला दिन बता रही है। बताए भी क्यों ना, ये ‘कालिमा’ जितनी बढ़ेगी कांग्रेस के भविष्य पर लगा ‘ग्रहण’ उसी अनुपात में कम जो होगा। उन्हें लोकतंत्र की चिन्ता जितनी भी सता रही हो, अपने हाशिए पर होने की चिन्ता बेहद सता रही है, इसमें कोई दो राय नहीं। सपा, टीएमसी, जदयू, राजद, एनसीपी जैसे दल भी कांग्रेस के सुर में सुर मिला रहे हैं क्योंकि आज इन सबकी नजर में ‘अ-सुर’ है तो केवल भाजपा। शत्रु का शत्रु तो स्वाभाविक रूप से मित्र हो जाता है।

सच तो ये है कि अब राजनीति में नीति, सिद्धांत, विचार जैसे शब्द बेमानी हो चुके हैं। अब इनकी जगह स्वार्थ, सुविधा और अवसर जैसे शब्दों ने ले ली है। आज जिस भाजपा को कांग्रेस की ये हरकत बेतुकी और बचकानी लग रही है, सत्ता में आने से पूर्व वो स्वयं इसी भूमिका में थी। राजनीतिक हित साधने के लिए सदन की कार्रवाई कल भी बाधित होती थी, आज भी हो रही है। लेकिन यहाँ सवाल ये नहीं है कि कल भाजपा गलत थी या आज कांग्रेस गलत है। सवाल ये है कि सदन की गरिमा और जनता के भविष्य के साथ कल भी खिलवाड़ हो रहा था, आज भी हो रहा है।

दूध की धुली कोई पार्टी नहीं है और शायद पूरी तरह हो भी नहीं सकती। शासन और सत्ता के संदर्भ में प्लेटो का कहा आज भी उतना ही सच है कि चुनाव अच्छे और बुरे के बीच नहीं, कम बुरे और अधिक बुरे के बीच होता है। विडंबना तो ये है कि इस कसौटी पर भी आज की तारीख में कोई पार्टी खरी उतरती नहीं दिखती। यहाँ आकर तराजू के पलड़े बराबर हो जाते हैं। ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ ही जैसे राजनीति का अन्तिम सत्य हो गया हो। और ये सत्य इतना विकराल रूप ले चुका है कि तमाम क्षेत्रीय पार्टियां भी अपने दायरे में बस यही कहानी दुहरा रही हैं।

क्षेत्रीय पार्टियां, जिनका जन्म अलग ‘प्रतिबद्धता’ के साथ होता है, सत्ता के हमाम में आते-आते उतनी ही नंगी दिखने लगती हैं। बिहार को ही लीजिए। जदयू को सत्रह वर्षों तक भाजपा के साथ ‘मलाई’ में ‘भलाई’ दिखी लेकिन अब उनकी पूरी राजनीति भाजपा के विरुद्ध खड़ी है। बात यहीं तक होती तो एक बात थी। हद तो तब हो गई जब जदयू ने उसी राजद के साथ हाथ मिलाया जिसके विरोध में उसका जन्म हुआ था। उधर भाजपा को भी चंद महीनों में ही उस सरकार में कमियां ही कमियां दिखने लगीं जिसका वो हाल तक खुद हिस्सा रही थीं।

बात साफ है कि आज तमाम तर्क बस अपनी सुविधा के लिए गढ़े जाते हैं। कल तक जिस साबिर अली को भाजपा के ही लोग दाउद का साथी बता रहे थे आज वही पार्टी में उनका स्वागत कर रहे हैं। बिहार में होनेवाले चुनाव के किसी समीकरण में वे फिट हो रहे हों तो उनके या किसी के ‘पाक-साफ’ होने में कितनी देर लगती है। उधर कल तक लालू के ‘हनुमान’ कहलाने वाले रामकृपाल यादव महज साल बीतते-बीतते इस कदर भाजपाई हो गए कि जिस लालू में उन्हें राजनीति की सारी खूबियां दिखती थीं, अब वही उनके लिए खामियों के पुतले हैं। ये तो कुछ उदाहरण भर हैं। देश के किसी भी हिस्से में कोई भी दल ऐसे उदाहरणों से अछूता नहीं है।

बहरहाल, सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे और शिवराज सिंह चौहान का भविष्य क्या होता है, कांग्रेस के सांसदों के निलंबन को लेकर राजनीति क्या करवट लेती है, संसद की कार्रवाई कब तक बाधित रहती है – इन सवालों के जवाब आज नहीं तो कल मिल जाएंगे लेकिन भारत की संसद सत्ता का पाप धोते-धोते कब तक मैली होती रहेगी, इसका जवाब आज किसी के पास नहीं। पार्टियां अपनी राजनीति में मस्त हैं, मीडिया को मसाला मिल रहा है लेकिन करोड़ों बेबस जनता का क्या..! कब तक कोई ‘ललित मोदी’, कोई ‘व्यापम’ आकर डेढ़ करोड़ भारतीयों के मन्दिर हमारी संसद को मैला करते रहेंगे। ललित मोदी और व्यापम कोई व्यक्तिविशेष या संस्थाविशेष नहीं बल्कि सत्ता के वो पाप हैं जो रहते तो हर युग में हैं लेकिन अब दिखने लगे हैं, ठीक वैसे ही जैसे किसी मरे हुए जानवर की लाश पर ‘कीड़े’ बजबजाते और ‘गिद्ध’ मंडराते दिखते हैं।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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