Nida Fazli

तुम ये कैसे जुदा हो गए… हर तरफ हर जगह हो गए..!

लिखने वाले बहुत हुए और बहुत होंगे पर ऐसे कितने हैं जिनकी दो पंक्तियां आप सुनें और आपके मुँह से बरबस निकल पड़े कि ये ‘फलां’ की ही हो सकती हैं। शब्दों पर अपनी छाप लगा देना सबके बस की बात नहीं। माँ सरस्वती ये कृपा अपने बिरले पुत्रों पर करती हैं और निदा फ़ाज़ली उन्हीं में एक थे। “कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता/ कहीं जमीं तो कहीं आस्मां नहीं मिलता” या “दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है/ मिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना है” या “तू इस तरह मेरी ज़िन्दगी में शामिल है” या फिर “होशवालों को ख़बर क्या, बेख़ुदी क्या चीज़ है” जैसी पंक्तियां आप सुनते हैं तो दिल और दिमाग पर बस एक अक्श उभरता है और वो है निदा फ़ाज़ली का जिन्होंने कल मुंबई में 78 साल की उम्र में अंतिम सांस ली। नियति की विडंबना देखिए, लाखों दिलों को धड़कना सिखा देने वाले शायर ने ये दुनिया भी छोड़ी तो दिल का दौरा पड़ने से..!

निदा फ़ाज़ली का जन्म 1938 में दिल्ली में रहने वाले एक कश्मीरी परिवार में हुआ था। मुर्तुजा हसन और जमील फातिमा के पुत्र निदा का असली नाम मुक्तदा हसन था। शायर के तौर पर उन्होंने खुद को निदा फ़ाज़ली कहलाना पसंद किया। ‘निदा’ का अर्थ है ‘स्वर’ और उसके साथ ‘फाजली’ की मौजूदगी है दूर रहकर भी कश्मीर से हमेशा जुड़े रहने के लिए।

आधुनिक साहित्य में गंगा-जमुनी तहजीब को जिन्दा रखने वालों में निदा की कोई सानी नहीं। वो जितने उर्दू के थे उतने ही हिन्दी के। उन्हें शायरी की प्रेरणा सूरदास और कबीर से मिली थी। उन्हें जितना उनकी ग़जलों के लिए याद किया जाएगा उतना ही बेहद आसान भाषा में लिखे दोहों के लिए। 1990 के दशक में उनके दोहों का एलबम ‘इनसाइट’ बहुत लोकप्रिय हुआ था जिसे जगजीत सिंह ने आवाज़ दी थी। ये एलबम भारत की मिली-जुली संस्कृति, सादगी और इंसानियत का जैसे आईना था। जगजीत सिंह और निदा फ़ाज़ली जब-जब साथ आए दोनों ने हर बार मिलकर बस ‘जादू’ ही तो रचा।

पद्मश्री (2013) और साहित्य अकादमी (1998) जैसे पुरस्कारों से सम्मानित निदा फ़ाज़ली सच्चे अर्थों में आम जनता के शायर थे और उनका ‘आम’ होना उन्हें और भी ‘खास’ बना देता है। जहाँ एक ओर उन्होंने ‘सफर में धूप तो होगी’, ‘खोया हुआ सा कुछ’, ‘आँखों भर आकाश’, ‘मौसम आते-जाते हैं’, ‘लफ्जों के फूल’, ‘मोर नाच’, ‘आँख और ख़्वाब के दर्मियां’ और ‘शहर में गांव’ जैसी यादगार कृतियां दीं वहीं ‘आहिस्ता-आहिस्ता’, ‘आप तो ऐसे न थे’, ‘रजिया सुल्तान’, ‘इस रात की सुबह नहीं’, ‘सरफरोश’ और ‘सुर’ जैसी फिल्मों को अपने गीतों से अमर कर दिया। हिन्दी-उर्दू जुंबां की शायरी की बात करें तो हिन्दी सिनेमा में मजरूह सुल्तानपुरी के बाद निदा फ़ाज़ली का ही नाम आएगा।

मंदिर-मस्जिद के नाम पर जहाँ आज भी दंगे होते हों वहाँ ये लिखने का साहस निदा फ़ाज़ली ही कर सकते थे कि “बच्चा बोला देखकर मस्जिद आलीशान, एक खुदा के पास इतना बड़ा मकान”। निदा ने ताउम्र बस एक धर्म जाना और वो था इंसानियत का धर्म। “घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें/ किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए” – धर्म के मर्म को इस तरह बस निदा ही बयां कर सकते थे। आज जबकि वो हमारे बीच नहीं हैं, उन्हीं के शब्दों में बस इतना कहा जा सकता है “तुम ये कैसे जुदा हो गए… हर तरफ हर जगह हो गए”। इस अजीमोशान शायर को मधेपुरा अबतक की श्रद्धांजलि।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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