वसंत उत्सव नहीं, वसंत महोत्सव है। जब प्रकृति में वसंत आता है तो चारों ओर फूल खिलने लगते हैं। पक्षी गीत गाने लगते हैं। आम और महुआ के पेड़ में मंजर लगने लगते हैं। सरसों के फूल सुगंध बिखरने लगते हैं। कोयल कूकने लगती है। हर तरफ बहार ही बहार होता है। सुंदर वातावरण मधुमय हो जाता है, नशीला हो जाता है। वसंत के ऐसे नशीले वातावरण में फिसलना व भटकना लाजिमी हो जाता है।
और फिर जीवन में किशोरावस्था पार कर युवावस्था आती है। युवावस्था भी तो जीवन के नगाड़े की बुलंद आवाज है। जीवन का वसंत काल है। इस उम्र में हाथ कहता है कि पकड़ो तो छोड़ो मत। नजरें कहती हैं जिस सुंदर चीज पर नजर टिक जाए तो उसे हटाओ मत। जीवन के इस वसंत काल में युवजनों के पैर डगमगाने लगते हैं, फिसलने लगते हैं।
इन दोनों वसंतों के बीच सर्वाधिक फिसलन भरी राहों पर युवाओं के पैर नहीं फिसले इसलिए बुद्धि की अधिष्ठात्री वीणापाणि सरस्वती माता की यह कहते हुए पूजा-अर्चना की जाती है कि हमारे मन को संयम और शक्ति प्रदान करो ताकि प्रकृति के रसीले वसंत और जीवन के नशीले वसंत में हमारा पैर स्थिर रहे। हम कहीं भटकें नहीं- ‘सरस्वती मां’ हमारे इस संकल्प को शक्ति दो।
परंतु आजकल होता क्या है? आज के युवजन वैसी पूजा-अर्चना नहीं करते। दिन-रात डीजे बजा-बजाकर भद्दे गीतों पर डांस करते हैं। सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने में लगे रहते हैं। तभी तो जिला प्रशासन को समाज के गणमान्य लोगों को बुलाकर शांति समिति की बैठक करनी पड़ती है।