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एनडीए माइनस मांझी यानि महागठबंधन माइनस लालू यानि बिहार में मुकाबला चौतरफा

Dalit leadership war in Bihar Vidhan SAbha Election -2015

Dalit leadership war in Bihar Vidhan SAbha Election -2015

जी हाँ, ऊपर का समीकरण चौंकाने वाला जरूर है लेकिन एनडीए में पासवान और मांझी के बीच चल रही ‘दलितों का नेता कौन’ की लड़ाई और महागठबंधन में मुलायम के ‘आफ्टर इफेक्ट’ से ऐसा कुछ हो जाय तो आश्चर्य की बात नहीं। कल तक एनडीए और महागठबंधन के बीच सीधा दिखने वाले मुकाबले के अब चौतरफा होने के पूरे आसार हैं। चलिए समझने की कोशिश करते हैं कैसे।

शुरू करते हैं रामविलास पासवान और जीतन राम मांझी की ‘लड़ाई’ से जिसमें संभावित चौतरफा मुकाबले के ‘बीज’ छिपे हैं। कल तक दलित नेता के तौर पर पासवान बिहार के इकलौते चेहरे थे। रमई राम, श्याम रजक टाईप लोगों का कद उनके सामने बहुत छोटा था। लेकिन इस बीच नीतीश कुमार ने मांझी को मुख्यमंत्री बनाने की ‘ऐतिहासिक भूल’ की और मांझी इस मौके को भुना ले गए। एक मुख्यमंत्री के तौर पर अपने संक्षिप्त कार्यकाल में मांझी ने महादलितों में इतनी पैठ तो बना ही ली कि पासवान को चुनौती दे दें। हुआ यों कि पासवान ने कह दिया कि एनडीए में मांझी ‘ट्रायल’ पर हैं। साथ में ये भी कि वे यानि पासवान राष्ट्रीय स्तर के एकमात्र दलित नेता हैं जबकि मांझी से लेकर मायावती तक राज्यस्तरीय नेता हैं। बस फिर क्या था मांझी ने तो उनके दलितों का नेता होने पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया। उनके हिसाब से पासवान केवल परिवार की राजनीति करते हैं, उन्होंने दलितों-पिछड़ों के लिए किया ही क्या है। मांझी टिकट बंटवारे में पासवान से ज्यादा नहीं तो बराबर का हिस्सा तो चाहते ही हैं।

इनके ‘मैं बड़ा तो मैं बड़ा’ की तनातनी में पसीने छूट रहे हैं भाजपा नेतृत्व के। पासवान फिलहाल ‘स्थिर’ हैं क्योंकि एक तो वो एनडीए में मांझी से पहले आए और उम्मीद से ज्यादा ‘पाए’ हैं, दूसरे उन्हें इतना  भरोसा है कि उनका सीट शेयर मांझी से ज्यादा जरूर होगा। हालांकि मांझी ये जताने से बिल्कुल नहीं चूक रहे कि पासवान के पास कोई विधायक नहीं है जबकि उनके साथ जेडीयू से आया धड़ा है। यही नहीं, गहरे जाकर देखें तो इस पेंच के भीतर एक पेंच और है। मांझी के साथ आए विधायकों में कुछ वैसे विधायक भी हैं जो 2005 में पासवान की पार्टी से जीते थे और बाद में नीतीश के पाले में चले गए थे। अब पासवान कह रहे हैं कि इन विधायकों को टिकट ना मिले जबकि मांझी उनके टिकट के लिए अड़े हुए हैं। परेशानी का एक सबब ये भी है कि पासवान और मांझी दोनों की निगाह ‘सुरक्षित’ सीटों पर है और यहाँ भी दोनों को संतुष्ट कर पाना एनडीए के लिए टेढ़ी खीर है। इस उठापटक को देख मांझी लालू के साथ भी अपनी सम्भावना पर ‘काम’ कर रहे हैं।

देखा जाय तो ये धुआँ बिना आग के नहीं है। लालू पहले भी मांझी को बीजेपी के खिलाफ लड़ाई में महागठबंधन के साथ आने का निमंत्रण दे चुके हैं। लेकिन वास्तविकता ये है कि नीतीश के रहते ऐसा सम्भव नहीं। अब मुलायम के अलग होने के बाद महागठबंधन का भीतरी ‘असंतोष’ बाहर आने लगा है। सीटों को लेकर ‘तनाव’ वहाँ भी जबरदस्त है। ऐसे में मांझी नीतीश-लालू की दोस्ती टूटने और लालू के साथ अपना समीकरण जोड़ने का विकल्प क्यों ना देखें।

बहरहाल, बनते-बिगड़ते और बिगड़ने के बाद बनते समीकरणों को एक जगह करके देखें तो बिहार चुनाव में मुकाबला चौतरफा हो सकता है और ऐसे में वे चार कोण कुछ इस तरह होंगे – 1. भाजपा की अगुआई में रामविलास पासवान की लोजपा और उपेन्द्र कुशवाहा की रालोसपा, 2. नीतीश की जेडीयू और कांग्रेस, 3. लालू की राजद और मांझी की पार्टी ‘हम’ तथा 4. सपा के साथ एनसीपी, वामदल और पप्पू की जनअधिकार पार्टी।

गौर से देखें तो ऐसा होने पर कमोबेश लाभ में भाजपा ही होगी क्योंकि उसे जो भी नुकसान होगा वो मांझी की अनुपस्थिति में महादलित वोटों का होगा लेकिन उधर भाजपा विरोधी मत तीन अलग-अलग दिशाओं में बंट जाएंगे। इतना होने के बाद भी ये तय जान पड़ता है कि जो मुकाबला चुनाव से पहले दोतरफा नहीं हो सकेगा वो चुनाव के बाद घूम-फिरकर दोतरफा हो ही जाएगा क्योंकि 122 के जादुई आंकड़े तक पहुँचने के लिए इन चार कोणों में दो कोणों को और उन्हें रोकने के लिए शेष दो कोणों को एक होना ही होगा। जय हो राजनीति..!

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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