Sansad Bhawan

भारत तेरी संसद मैली हो गई… सत्ता के पाप धोते-धोते

ललित मोदी और व्यापम के मुद्दे पर सुषमा, वसुंधरा और शिवराज के इस्तीफे को लेकर कांग्रेस अड़ी हुई है। संसद ठप्प है। गतिरोध बढ़ता जा रहा है। संसद के इतिहास में पहली बार स्पीकर ने एक साथ पच्चीस सांसदों को निलंबित किया है। ये सांसद कांग्रेस के हैं। इस निलंबन के विरोध में सोनिया गांधी, राहुल गांधी, मनमोहन सिंह, एके एंटनी समेत कांग्रेस के तमाम नेता संसद के बाहर प्रदर्शन कर रहे हैं।

लोकसभा चुनाव में अपनी ऐतिहासिक पराजय के बाद अस्तित्व की लड़ाई रह रही कांग्रेस अब आक्रामक हो चली है। पहले तो कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी अपने ‘अज्ञातवास’ के बाद बगावती बयानों और अप्रत्याशित दौरों के साथ एकदम नए अवतार में सामने आए और अब पूरी पार्टी उनके नक्शेकदम पर चल पड़ी है। अपने सांसदों के निलंबन को कांग्रेस लोकतंत्र के लिए काला दिन बता रही है। बताए भी क्यों ना, ये ‘कालिमा’ जितनी बढ़ेगी कांग्रेस के भविष्य पर लगा ‘ग्रहण’ उसी अनुपात में कम जो होगा। उन्हें लोकतंत्र की चिन्ता जितनी भी सता रही हो, अपने हाशिए पर होने की चिन्ता बेहद सता रही है, इसमें कोई दो राय नहीं। सपा, टीएमसी, जदयू, राजद, एनसीपी जैसे दल भी कांग्रेस के सुर में सुर मिला रहे हैं क्योंकि आज इन सबकी नजर में ‘अ-सुर’ है तो केवल भाजपा। शत्रु का शत्रु तो स्वाभाविक रूप से मित्र हो जाता है।

सच तो ये है कि अब राजनीति में नीति, सिद्धांत, विचार जैसे शब्द बेमानी हो चुके हैं। अब इनकी जगह स्वार्थ, सुविधा और अवसर जैसे शब्दों ने ले ली है। आज जिस भाजपा को कांग्रेस की ये हरकत बेतुकी और बचकानी लग रही है, सत्ता में आने से पूर्व वो स्वयं इसी भूमिका में थी। राजनीतिक हित साधने के लिए सदन की कार्रवाई कल भी बाधित होती थी, आज भी हो रही है। लेकिन यहाँ सवाल ये नहीं है कि कल भाजपा गलत थी या आज कांग्रेस गलत है। सवाल ये है कि सदन की गरिमा और जनता के भविष्य के साथ कल भी खिलवाड़ हो रहा था, आज भी हो रहा है।

दूध की धुली कोई पार्टी नहीं है और शायद पूरी तरह हो भी नहीं सकती। शासन और सत्ता के संदर्भ में प्लेटो का कहा आज भी उतना ही सच है कि चुनाव अच्छे और बुरे के बीच नहीं, कम बुरे और अधिक बुरे के बीच होता है। विडंबना तो ये है कि इस कसौटी पर भी आज की तारीख में कोई पार्टी खरी उतरती नहीं दिखती। यहाँ आकर तराजू के पलड़े बराबर हो जाते हैं। ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ ही जैसे राजनीति का अन्तिम सत्य हो गया हो। और ये सत्य इतना विकराल रूप ले चुका है कि तमाम क्षेत्रीय पार्टियां भी अपने दायरे में बस यही कहानी दुहरा रही हैं।

क्षेत्रीय पार्टियां, जिनका जन्म अलग ‘प्रतिबद्धता’ के साथ होता है, सत्ता के हमाम में आते-आते उतनी ही नंगी दिखने लगती हैं। बिहार को ही लीजिए। जदयू को सत्रह वर्षों तक भाजपा के साथ ‘मलाई’ में ‘भलाई’ दिखी लेकिन अब उनकी पूरी राजनीति भाजपा के विरुद्ध खड़ी है। बात यहीं तक होती तो एक बात थी। हद तो तब हो गई जब जदयू ने उसी राजद के साथ हाथ मिलाया जिसके विरोध में उसका जन्म हुआ था। उधर भाजपा को भी चंद महीनों में ही उस सरकार में कमियां ही कमियां दिखने लगीं जिसका वो हाल तक खुद हिस्सा रही थीं।

बात साफ है कि आज तमाम तर्क बस अपनी सुविधा के लिए गढ़े जाते हैं। कल तक जिस साबिर अली को भाजपा के ही लोग दाउद का साथी बता रहे थे आज वही पार्टी में उनका स्वागत कर रहे हैं। बिहार में होनेवाले चुनाव के किसी समीकरण में वे फिट हो रहे हों तो उनके या किसी के ‘पाक-साफ’ होने में कितनी देर लगती है। उधर कल तक लालू के ‘हनुमान’ कहलाने वाले रामकृपाल यादव महज साल बीतते-बीतते इस कदर भाजपाई हो गए कि जिस लालू में उन्हें राजनीति की सारी खूबियां दिखती थीं, अब वही उनके लिए खामियों के पुतले हैं। ये तो कुछ उदाहरण भर हैं। देश के किसी भी हिस्से में कोई भी दल ऐसे उदाहरणों से अछूता नहीं है।

बहरहाल, सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे और शिवराज सिंह चौहान का भविष्य क्या होता है, कांग्रेस के सांसदों के निलंबन को लेकर राजनीति क्या करवट लेती है, संसद की कार्रवाई कब तक बाधित रहती है – इन सवालों के जवाब आज नहीं तो कल मिल जाएंगे लेकिन भारत की संसद सत्ता का पाप धोते-धोते कब तक मैली होती रहेगी, इसका जवाब आज किसी के पास नहीं। पार्टियां अपनी राजनीति में मस्त हैं, मीडिया को मसाला मिल रहा है लेकिन करोड़ों बेबस जनता का क्या..! कब तक कोई ‘ललित मोदी’, कोई ‘व्यापम’ आकर डेढ़ करोड़ भारतीयों के मन्दिर हमारी संसद को मैला करते रहेंगे। ललित मोदी और व्यापम कोई व्यक्तिविशेष या संस्थाविशेष नहीं बल्कि सत्ता के वो पाप हैं जो रहते तो हर युग में हैं लेकिन अब दिखने लगे हैं, ठीक वैसे ही जैसे किसी मरे हुए जानवर की लाश पर ‘कीड़े’ बजबजाते और ‘गिद्ध’ मंडराते दिखते हैं।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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