केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने कल लोकसभा में जानकारी दी कि भारत में 21 लाख 70 हजार लोग एचआईवी संक्रमित हैं। एचआईवी संक्रमित लोगों की ये आबादी दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आबादी है। नड्डा द्वारा पेश किए गए आंकड़े के मुताबिक दक्षिण अफ्रीका में 68 लाख और नाईजीरिया में 34 लाख लोग इसके शिकार हैं। इन दो देशों के बाद भारत का नंबर आता है।
स्वास्थ्य मंत्री ने लोकसभा में दिए गए अपने एक लिखित जवाब में बताया कि भारत में एचआईवी से पीड़ित मरीज एंटीरेट्रोवायरल थेरेपी (एआरटी) के सहारे जी रहे हैं। उन्होंने यह भी बताया कि मौजूदा समय में देश में कुल 524 एआरटी सेंटर्स हैं जो मुफ्त में यह थेरेपी उपलब्ध करवा रहे हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकार एचआईवी नाम की इस चुनौती का सामना करने की भरसक कोशिश कर रही है और उम्मीद बंधाने वाले कुछ नतीजे भी देखने को मिले हैं लेकिन जितनी भयावह यह समस्या है क्या उतनी ही तैयारी के साथ हम इससे लड़ पा रहे हैं..?
एचआईवी यानि “ह्यूमन इम्यूनो डिफिसिएंसी वायरस” से संक्रमण के बाद की स्थिति है एड्स यानि “एक्वायर्ड इम्यून डिफिसिएंसी सिन्ड्रोम”। एड्स स्वयं में कोई बीमारी नहीं है पर एड्स से पीड़ित मानव-शरीर जीवाणु-विषाणु आदि से होने वाली संक्रामक बीमारियों से लड़ने की प्राकृतिक प्रतिरक्षण क्षमता खो बैठता है। ऐसे में सर्दी-जुकाम से लेकर क्षय रोग जैसे रोग तक सहजता से हो जाते हैं और उनका इलाज करना मुश्किल से नामुमकिन होता चला जाता है। एचआईवी संक्रमण को एड्स की स्थिति तक पहुँचने में आठ से दस साल या कभी-कभी इससे भी अधिक वक्त लग सकता है लेकिन एक बार इसकी चपेट में आने के बाद जीवन की ओर जाने वाले सारे रास्ते एकदम से बन्द दिखने लगते हैं।
आज जो एड्स महामारी का रूप ले चुका है उसे 1980 से पहले लोग जानते तक नहीं थे। भारत की बात करें तो यहाँ एड्स का पहला मामला 1996 में दर्ज किया गया था और महज दो दशकों में इसके मरीजों की संख्या 21 लाख को पार कर चुकी है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में केवल 2011 से 2014 के बीच ही डेढ़ लाख लोग इसके कारण मौत का शिकार हुए।
एचआईवी को लेकर एक चौंकाने वाला तथ्य यह भी सामने आया है कि विश्व में एचआईवी से पीड़ित होने वालों में सबसे अधिक संख्या किशोरों की है। यह संख्या 20 लाख से ऊपर है। यूनिसेफ की ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि वर्ष 2000 से अब तक किशोरों के एड्स से पीड़ित होने के मामलों में तीन गुना इजाफा हुआ है जो कि अत्यंत चिन्ता का विषय है। ये चिन्ता तब और भी बढ़ जाती है जब ये जानने को मिलता है कि एड्स से पीड़ित दस लाख से अधिक किशोर सिर्फ छह देशों में रह रहे हैं और भारत उनमें एक है। शेष पाँच देश दक्षिण अफ्रीका, नाईजीरिया, केन्या, मोजांबिक और तंजानिया हैं।
देखा जाय तो एचआईवी एड्स महज स्वास्थ्य की समस्या नहीं बल्कि सामाजिक संकट भी है। एक समय लोग सोचते थे कि भारत जैसे देश में यह रोग तेजी से नहीं फैलेगा क्योंकि यहाँ सामाजिक नियम बड़े कड़े हैं। बहुत जल्द ये धारणा गलत साबित हुई। आज ना केवल शहरों में रहने वाले बल्कि गाँवों के लोग भी इसकी गिरफ्त में आ रहे हैं। इसका सीधा मतलब यह है कि समाज के ऐसे कई पहलू हैं जिन्हें हमने या तो समझा नहीं है या समझना नहीं चाहते।
एड्स की भयावह समस्या का एक पहलू यह भी है कि इसको लेकर हम अपनी सामाजिक जिम्मेदारी समझते ही नहीं। भूकम्प और सुनामी आए तो मदद के लिए कई हाथ बढ़ते हैं लेकिन एड्स से पीड़ित व्यक्ति के प्रति हमारा रवैया ऐसा होता है जैसे वो समाज का अंग हो ही नहीं। यही वजह है कि 74 प्रतिशत एचआईवी पॉजिटिव व्यक्ति कामकाज की जगह पर अपनी बीमीरी की बात छिपाकर रखते हैं। क्या करुणा भी सोच-समझकर उपजनी चाहिए..? कम-से-कम एड्स के मामले में हमारा व्यवहार कुछ ऐसा ही कहता है। और तो और, इस भेदभाव में लिंग भी अपनी भूमिका निभाता है। पुरुषों की तुलना में स्त्रियाँ इसका कहर अधिक झेलती हैं। ज्यादातर मामलों मे एचआईवी संक्रमण होने पर उन्हें घर छोड़ने को कह दिया जाता है। पत्नियों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने एचआईवी पॉजिटिव पति का साथ निभाएं लेकिन पति कम ही मामलों में वफादार साबित होते हैं।
सरकारी विज्ञापनों से हम ये तो जान गए हैं कि एड्स असुरक्षित यौन संबंध, संक्रमित सुई, संक्रमित खून चढ़ाने और गर्भवती माँ से होने वाले बच्चों को होता है लेकिन हमारा ये जानना अधिक जरूरी है कि एचआईवी अपने आप में कोई रोग नहीं है। यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें हमारे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। अगर इससे पीड़ित लोग अपनी जीवन-ऊर्जा और सामान्य जीवन जीने की ललक को कायम रख पाएं तो रोगों से लड़ने की उनकी क्षमता भले ही पूरी तरह वापस ना आए उसे काफी हद तक बढ़ाया जरूर जा सकता है। और ये हमारे-आपके सकारात्मक सहयोग के बिना सम्भव नहीं। बस हम अपनी सोच बदलें, फिर देखें कि सरकार का काम कितना आसान हो जाता है।
मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप