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श्रद्धांजलि: और दिनकर के मुंह से ‘रश्मिरथी’ को सुन बीमार होने के बावजूद उठकर बैठ गए थे युवा शलभ

Sahityakar Harishankar Srivastav Shalabh

कोशी के साहित्य का पितामह चला गया: डॉ. रवि

अपनी साहित्य-साधना से कई दशकों तक मधेपुरा समेत पूरे कोशी अंचल को समृद्ध और गौरवान्वित करने वाले मूर्धन्य साहित्यकार हरिशंकर श्रीवास्तव शलभ के निधन से मधेपुरा के साहित्यिक, शैक्षणिक एवं बुद्धिजीवी समाज के लोग ही नहीं बल्कि आमजन भी शोकाकुल और मर्माहत हैं। सहरसा के सूर्या अस्पताल में 90 वर्ष की आयु में उन्होंने अंतिम सांस ली। कोरोना से कई दिनों तक लड़कर उसे लगभग परास्त ही कर चुके थे शलभ जी। उम्मीद बंधने लगी थी कि वेंटिलेंटर से वे वापस घर लौट आएंगे लेकिन नियति को यह मंजूर न था। घड़ी की सुई ने अभी 23 तारीख की दहलीज पार ही की थी कि दूसरी ओर कोरोना का वेश धर कर बैठे काल ने उन्हें ग्रस लिया। सूर्य ने अभी दस्तक नहीं दी थी लेकिन कैलंडर की तारीख बदल कर 24 हो चुकी थी। अब इस संयोग को आप क्या कहिएगा कि इसी 24 अप्रैल के दिन हिन्दी साहित्य के सूर्य दिनकर ने भी अंतिम सांस ली थी। और यह तो संयोग से कुछ अधिक लगेगा आपको कि शलभजी को स्वनामधन्य दिनकर का अपार स्नेह प्राप्त था। स्नेह कुछ ऐसा कि एक बार मुजफ्फरपुर में इनके बीमार होने की खबर सुन वे जानकीवल्लभ शास्त्री, कलक्टर सिंह केशरी समेत कई अन्य साहित्यकार मित्रों के साथ यह कहते हुए उनके पास जा पहुंचे कि रश्मिरथी के कुछ छंद सुनाऊंगा तो शलभ उठकर बैठ जाएगा। बता दें कि ओज की अद्भुत कृति रश्मिरथी उन दिनों रची जा रही थी और उसके कुछ छंद सुनकर शलभ जी सचमुच उठकर बैठ गए थे।

हरिशंकर श्रीवास्तव शलभ जी के निधन पर राज्यसभा एवं लोकसभा के पूर्व सदस्य तथा बीएनएमयू के संस्थापक कुलपति डॉ. रमेन्द्र कुमार यादव रवि ने अवरुद्ध कंठ से कहा कि आज कोशी के साहित्य का पितामह चला गया। शलभजी ने मधेपुरा की कई पीढ़ियों में साहित्य का संस्कार भरा था। वे जितने बड़े कवि थे उतने ही बड़े शोधकर्ता भी। अर्चना, आनंद, एक बनजारा विजन में जैसी काव्य-कृतियों के साथ ही उन्होंने मधेपुरा में स्वाधीनता आंदोलन का इतिहास, शैव अवधारणा और सिंहेश्वर, अंग लिपि का इतिहास जैसी पुस्तकें भी दीं। उनका साहित्यिक अवदान कितना बड़ा था इसका मूल्यांकन आने वाला समय करेगा। व्यक्तिगत जीवन में भी उन जैसा आला दर्जे का इंसान अपने सम्पूर्ण जीवन में मैंने गिने-चुने ही देखे हैं।

मधेपुरा के सुप्रसिद्ध साहित्यकार और समाजसेवी डॉ. भूपेन्द्र मधेपुरी ने कहा कि शलभजी के रूप में मैंने अपना साहित्यिक गुरु और स्वयं से भी अधिक मेरी चिन्ता करने वाला अभिभावक खो दिया। धाराप्रवाह आंसुओं के बीच उन्होंने कहा कि इस साल 1 जनवरी को नए साल और उनके 90वें जन्मदिवस की दोहरी खुशी के उपलक्ष्य में रसगुल्ले से उनका मुंह मीठा कराते हुए मैंने उनसे वादा लिया था कि बिना सेंचुरी मारे आप हमलोगों को अलविदा नहीं कहिएगा। लेकिन एकमात्र यही वादा था जिसे वे बिना निभाए चले गए। डॉ. मधेपुरी ने कहा कि उनके बिना मधेपुरा की साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र कौशिकी क्षेत्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन का आंगन ही नहीं बल्कि मधेपुरा के साहित्य का आकाश भी सूना हो गया। उनकी कमी की भरपाई मुमकिन नहीं।

ध्यातव्य है कि हरिशंकर श्रीवास्तव शलभ कौशिकी क्षेत्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन, मधेपुरा के अध्यक्ष थे, जबकि डॉ. रमेन्द्र कुमार यादव रवि इसके संरक्षक और डॉ. भूपेन्द्र मधेपुरी इसके सचिव हैं। कौशिकी को सिरजने वाले शलभ जी के निधन के बाद इससे जुड़े साहित्यप्रेमियों के शोक-संदेश का जैसे तांता लगा हुआ है। उन्हें श्रद्धांजलि देने वालों में डॉ. शांति यादव,  प्रोफ़ेसर सचिंद्र महतो, डॉ. विनय कुमार चौधरी, प्रो, श्यामल किशोर यादव, डॉ. सिद्धेश्वर काश्यप, डॉ. विश्वनाथ विवेका, श्री दशरथ प्रसाद सिंह, प्रो. मणिभूषण वर्मा, फर्जी कवी प्रो.(डॉ.)अरुण कुमार, डॉ. अमोल राय, डॉ. आलोक कुमार, श्री सियाराम यादव मयंक, श्री संतोष कुमार सिन्हा,  श्यामल कुमार सुमित्र, राकेश कुमार द्विजराज, प्रमोद कुमार सूरज सहित दर्जनों साहित्यकार व बुद्धिजीवी शामिल हैं।  इसके अलावा पूर्व विधान पार्षद विजय कुमार वर्मा और आरएम कॉलेज सहरसा के पूर्व प्राचार्य  डॉ विनय कुमार चौधरी ने भी उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित की है और परिवार के प्रति शोक व्यक्त किया है। हरिशंकर श्रीवास्तव शलभ अपने पीछे साहित्यकार पुत्र अरविन्द श्रीवास्तव, मुन्ना जी समेत भरा पूरा परिवार छोड़ गए हैं.

जदयू मीडिया सेल के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. अमरदीप ने इस मौके पर कौशिकी क्षेत्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन को भेजे अपने शोक-संदेश में कहा कि शलभजी उन बिरले साहित्यकारों में थे जिनके कारण साहित्य की गरिमा और सृजनकर्म में लोगों की आस्था बची हुई है। वे सही मायने में सरस्वती के वरदपुत्र थे, जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन साहित्य की साधना में लगा दिया। वे मेरे ही नहीं साहित्यप्रेमियों की कई पीढ़ियों के मार्गदर्शक थे। सच तो यह है कि आज कोशी और मधेपुरा ने अपने ‘दिनकर’ को खो दिया।

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